रणघोष की सीधी सपाट बात

 सारी लड़ाई ही कमीशनखोरी को लेकर, नप में सबका अधिकार.. वह मिलना चाहिए 


रणघोष खास.  रेवाड़ी


21 अप्रैल को अर्बन लोकल बॉडीज डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी ने एक आदेश जारी कर विकास कार्यों में पारदर्शिता  एवं भ्रष्टाचार को रोकने के लिए गठित निगरानी कमेटी के दोनों सदस्यों विवेक ढींगरा व सुनील ग्रोवर को हटा दिया । यह सब नगर पार्षदों के विरोध के चलते हुआ। इसके तुरंत बाद खुद जिला नगर आयुक्त ने भी खुद को कमेटी से अलग कर लिया। इस खुशी में पार्षदों ने लड्‌डू बांटे मानो भ्रष्टाचार पर विजयी हासिल कर ली हो। इस कार्रवाई से कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। पहला अगर पार्षदों को कमेटी के इन दो गैर सरकारी नामित सदस्यों की कार्यप्रणाली पर शक था। ये अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे थे। या ऐसा कुछ साबित हो रहा था जिसमें भ्रष्टाचार की बू आ रही थी तो कायदे से इनके खिलाफ जांच होनी चाहिए। क्या हटाने से नप में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा।  दूसरा इन सदस्यों की ऑफ दा रिकार्ड बातचीत पर भरोसा करें तो नप भ्रष्टाचार में काजल की कोठरी बन चुका है। यहां कोई बेदाग नहीं है। नप की जड़ों में कमीशनखोरी, इधर उधर के घोटाले की खुराक पहुंच रही है। ऐसा कोई नगर पार्षद, अधिकारी या कर्मचारी खुलकर यह दावा नहीं कर सकता कि वह बेबाक- बेदाग है। इसलिए पिछले दिनों विजिलेंस की टीम ने जब नप में प्रोपर्टी आईडी के बदले मांगी गई घूस की शिकायत पर कार्रवाई की तो एक भी पार्षद निष्पक्ष जांच या कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए आगे नहीं आया। रूटीन की मीटिंग में अधिकांश पार्षद इस कदर चिल्लाते नजर आते हैं मानो वे नप में कमीशनखोरी की गंदगी को साफ करने का इंकलाब बनकर मैदान में उतर चुके हो।

 हटाए गए दोनों सदस्यों पर अच्छे खासे नेताओं का हाथ था

जिन दोनों सदस्यों को हटाया गया वे पंजाबी समाज से संबंध रखते हैं। विवेक ढींगरा केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह के आशीर्वाद से बने हैं और नप चेयरपर्सन पूनम यादव के बेहद करीबी थे। हटने के बाद भी वे चेयरपर्सन के खास रहेंगे यह आने वाले दिनों में पता चलेगा। रिपोर्ट के मुताबिक विवेक ढींगरा को जब हटाया जा रहा था उस समय किसी ने विरोध नहीं किया। जाहिर है किसी ना किसी वजह से दूरिया बन चुकी है। दूसरी तरफ सुनील ग्रोवर हरको बैंक के चेयरमैन अरविंद यादव के बेहद करीब है। इनके पिता ओमप्रकाश ग्रोवर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। नप को लेकर सुनील ग्रोवर की कार्यप्रणाली एक दायरे तक सीमित थी। वे खामोशी से अपनी जिम्मेदारियों को निभा रहे थे। पार्षदों में ग्रोवर को लेकर उतना विरोध नहीं था जितना विवेक ढींगरा पर

 सारी लड़ाई ही ठेकेदार के कमीशनखोरी पर है

निगरानी समिति का कार्य वार्ड स्तर पर ठेकेदार द्वारा करवाए गए कार्यों की समीक्षा कर रिपोर्ट तैयार करना था। समिति बनने के बाद नगर पार्षदों की अपने वार्ड में अहमियत भी खत्म हो गई थी। लिहाजा ठेकेदार का रूझान पार्षदों से ज्यादा समिति  के सभी सरकारी एवं गैर सरकारी सदस्यों की तरफ होता चला गया। ठेकेदार के लिए पार्षद से ज्यादा समिति सदस्यों को संतुष्ट करना जरूरी था। इसमें कोई दो राय नहीं की नप में कोई भी छोटा बड़ा कार्य अधिकारियों के निर्धारित कमीशन के रास्ते आगे नहीं बढ़ता है। भ्रष्टाचार का जिन्न तभी बाहर आता है जब कमीशन ईमानदारी से एक दूसरे तक नहीं पहुंच जाए। आधे पार्षद ऐसे हैं जिनकी व्यवसायिक पृष्ठभूमि का पता नहीं चलता कि वे अपनी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए अपने आर्थिक पक्ष को कैसे मजबूत रखते हैं। कुछ पार्षद ईमानदारी से सिस्टम को ठीक करना चाहते हैं तो माहौल को देखकर अलग थलग पड़ जाते हैं।

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