भाजपा- कांग्रेस- जेजेपी में तेजी से बढ़ते डिफाल्टर बाजारू कार्यकर्ता, दांव पर लगी विश्वसनीयता
–आम पाठक व दर्शकों के बीच आने से पहले खबरें मीडिया के अंदर बनी मौजूदा अदरूनी मानसिकता से होकर भी गुजरती है। इसी का एक बड़ा प्रमाण भी सामने रखने जा रहे हैं जो आमतौर पर निजी मसलों से जुड़ा है लेकिन इसका असर समाज पर नजर आता है।
रणघोष खास. सुभाष चौधरी
दो दिन पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विधानसभा व संसद में तेजी से बढ़ते अपराधी प्रवृति के नेताओं की संख्या पर गहरी चिंता जताते हुए कहा था कि निर्वाचन आयोग व संसद को इस दिशा में जरूर कदम उठाए नहीं तो यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित होंगे।माननीय कोर्ट की इस चिंता पर राजनीतिक दल व सत्तारूढ पार्टियां कितनी गंभीर होगी यह समय बताएगा। इसके साथ साथ राजनीतिक दलों में भी कुछ सालों से समर्थकों के नाम पर ऐसे बाजारू कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों की जमात भी तेजी से बढ़ती जा रही है जो सामाजिक तौर पर राजनीति की बची खुची गरिमा एवं विश्वास को भी खंडित करते जा रहे हैं। ऐसे कार्यकर्ता बहुत कम समय में मीडिया में विज्ञापन के माध्यम से एंट्री कर खबरों में प्रमुखता से जगह पाकर अपनी छिपे इरादों को पूरा कर रहे हैं। पहले स्थानीय स्तर के मीडिया से तालमेल बनाते हैं। विज्ञापन के माध्यम से अपने आला कमान नेताओं से जुड़ाव पैदा करते हैं। वे जानते हैँ कि विज्ञापन मीडिया को जिंदा रखने में आक्सीजन का काम करती है। इसी नब्ज को पकड़ कर यह जमात धीरे धीरे खबरों से पहचान बनाना शुरू कर देती हैं। उसके बाद अपने छिपे एजेंडों को पार्टी व मीडिया के प्लेटफार्म पर चालाकी से पूरा करने में जुटी रहती हैं। इसी दरम्यान अगर मंसूबे पूरे नहीं होते हैं तो वे वहीं लौट कर गायब हो जाते हैं जहां से चले थे। नतीजा इसी दौरान पार्टी के साथ साथ मीडिया वालों के साथ उसी तरह की ठगबाजी हो जाती है जो इन दिनों साइबर क्राइम के तोर पर तरह तरह के प्रलोभन दिखाकर की जा रही है। स्थिति यह बनती जा रही है कि भाजपा- जेजेपी व कांग्रेस में ऐसी जमात पार्टी में अलग अलग पदों पर तेजी से बढ़ती जा रही है। पोल खुलने पर जब यह गायब हो जाती है तो संगठनों के जिम्मेदार पदाधिकारी भी एक सीमा तक प्रयास करने के बाद अपनी जिम्मेदारी से पल्लू झाड़ लेते हैं। इस स्थिति में मीडिया में वे लोग मानसिक और आर्थिक प्रताड़ना का शिकार बन जाते हैं जो अपनी जिम्मेदारी में विज्ञापन के माध्यम से इनसे जुड़े थे। यही वजह है कि मीडिया व राजनीतिक दलों के बीच विज्ञापन रिकवरी को लेकर ऐसे मामलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। कहने को यह मसला निजी तौर पर आपसी आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है लेकिन इसका नकारात्मक असर मीडिया प्लेटफार्म पर होने वाली कवरेज में छिपे भावों के तौर पर सामने आता है। जो निष्पक्ष ना होकर पक्षपात की मानसिकता के तोर पर महसूस कराया जाता है। आम पाठक इस अंदरूनी सच्चाई से अनजान रहता है। इस तरह इन बाजारू कार्यकर्ताओं की वजह से मीडिया एवं राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता एवं समाज के प्रति जवाबदेही व जिम्मेदारी दांव पर लगी रहती है। इस स्थिति से निपटने के लिए राजनीतिक दलों व मीडिया को मिलकर बाजारू व अवसरवादी शक्ल में नजर आने वाले कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों की जांच पड़ताल कर उन्हें सार्वजनिक करना चाहिए ताकि राजनीति- मीडिया के धर्म की मर्यादा बनी रहे।