रणघोष की सीधी सपाट बात

जब संस्थाओं में सभी ईमानदार  तो सड़कों पर एक दूसरे के कपड़े क्यों उतार रहे हैं


– हरियाणा रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन ऑफ सोसाइटी एक्ट 2012 से आज समाजसेवियों का असली चरित्र सामने आ गया


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


जब से हरियाणा रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन ऑफ सोसाइटी एक्ट 2012 लागू किया गया है। समाजसेवा का असली चरित्र भी सामने आ गया है। जिन सामाजिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं में धन का धारा प्रवाह ज्यादा है वहां भाईचारे व सेवा की जगह आपसी चौधराहट, एक दूसरे को नीचा दिखाने एवं लूट खसोट की मानसिकता पूरी तरह से काबिज होती जा रही है। जो संस्थाएं घाटे में या बिना किसी आर्थिक मदद के घीसट- घीसट कर चल रही है उसे ताकत देने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है।  नतीजा समाज सेवा का चरित्र सड़कों पर, पुलिस थाना, प्रशासन व नेताओं के दरबार में निवस्त्र होकर नृत्य करता नजर आ रहा है।

रेवाड़ी शहर की कुछ सामाजिक संस्थाओं में चौधर के नाम पर चल रही लड़ाई यह बताने के लिए काफी है कि असल में समाजसेवा को इस तरह की लड़ाईयों  ने एक भददा मजाक बनाकर रख दिया है। समझ में यह नहीं आ रहा कि इन संस्थाओं में चुने जाने वाले सदस्य आखिर किस बात को लेकर एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे  हैं। क्या चुने हुए सदस्यों को विधायकों की तरह सुविधा या पेंशन, वेतन या भत्ता मिलता है। वे क्या सोचकर समाज की सेवा करने के लिए सोसाइटी एक्ट  के तहत चुनाव लड़ते हैं। सबसे ज्यादा मरना उन दानवीरों का होता है जो अपनी नेक कमाई से चंदा भी देते हैं और जिम्मेदारी एवं जवाबदेही के चलते समाज के ऐसे लोगों के ताने सुनते हैं जो समाजसेवा के नाम पर नाटक करने के अलावा कुछ नहीं करते। ऐसे हालातों में सेवा भाव की अलख जगाने वाले अब चुनाव से दूर होते जा रहे हैं और कर्महीन काबिज होते जा रहे हैं। ऐसे में  अधिकांश वो नजर आ रहे हैं जिनकी काली नजरें संस्था में दानवीरों द्वारा दिए गए करोड़ों रुपए के दान  को इधर उधर करने पर टिकी हुई हैं। इसी कारण से चुनाव में झगड़े व विवाद पैदा हो रहे हैं।  यहां बताना जरूरी है कि आधे से ज्यादा दानवीर अपनी नेक कमाई का कुछ हिस्सा बजाय टैक्स के तरीकों से देने के गुप्त दान के तौर पर ज्यादा करते हैं ताकि कोई बेवजह की परेशानी पैदा नहीं हो जाए। यानि सरकारी रिकार्ड में इन दान राशियों का उल्लेख नहीं होता। ऐसे में संस्था में चुनकर आए कुछ सदस्यों की लालची नजरें इस राशि पर रहती है। यहीं आगे चलकर विवाद व भ्रष्ष्टाचार का चेहरा बन जाती है। पिछले दिनों सैनी समाज के चुनाव को लेकर दोनों पक्षों की तरफ से ताबड़तोड़ हमले किए गए इसमें भ्रष्टाचार का आरोप प्रमुख तौर पर रहा। आज स्थिति यह बन चुकी है कि शायद  ही शहर की कोई ही ऐसी संस्था बची हुई हो जो सार्वजनिक तौर पर यह दावा कर सके कि यहां सबकुछ गंगाजल की तरह पवित्र है। ऐसे में किसी भी स्वाभिमानी, साफ सुथरी मानसिकता के साथ संस्थाओं के साथ जुड़े समाजसेवियों के लिए लंबे समय तक जुड़े रहना इसलिए आसान नहीं रहा क्योंकि उनके आस पास समाज का वह तबका अपनी जड़े जमा चुका है जिसकी पारिवारिक, आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि चुनाव के समय पैदा होती है ओर लूट खसोट करने के बाद पानी में उठे बबूले की तरह  खत्म हो जाती है। 

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