रणघोष की सीधी सपाट बात

 मजबूर माता- पिता, सहमा विद्यार्थी, मुस्कराता शिक्षा का व्यापारी, यही है हमारी शिक्षा नीति, बात खत्म


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


मौजूदा हालात में शिक्षा की मूल आत्मा बाजार में खड़े इतराते बाजारू शिक्षा के ठेकेदारों के सामने पूरी तरह से तार तार होती जा रही है। बच्चों के माता-पिता असहाय- मजबूर इसलिए है क्योंकि सरकारी शिक्षा व्यवस्था सीवरेज में जमें संड़ाध मारते पानी की तरह बन चुकी है। माता- पिता मजबूर असहाय हो चुका है। विद्यार्थी सहमा व डरा हुआ है। शिक्षा का व्यापारी मुस्करा रहा है। सही मायनों में यहीं हमारी शिक्षा नीति का असल सच है।
कमाल देखिए सबकों सब पता है फिर भी गांधारी की तरह आंखों में पटटी बांधकर अनजान बने हुए हैं। महाभारत में गांधारी ने अपने नेत्रहीन पति धृतराष्ट्र के प्रति अपने समर्पण भाव के चलते आंखें होते हुए भी पति की तरह जीवन जीने का संकल्प लिया था। यहां अधिकारी एवं सरकार चलाने वाले किसके लिए अंधे बने हुए हैं यह सोचने ओर सवाल खड़े करने का समय है। सरेआम स्कूल संचालक दाखिला के समय ब्यूटी पार्लर की तरह बेहतर शिक्षा की प्रदर्शनी लगाकर जो पांखड़ व खेल करते हैं उसे समझना जरूरी हो गया है। ऐसा नहीं है कि सभी ऐसा करते हैं। कुछ है जिन्होंने शिक्षा के मूल्यों एवं उसकी मूल आत्मा को काफी हद तक बचाया हुआ है लेकिन वे भी इस बाजार में अलग थलग पड़ते जा रहे हैं। एनसीईआरटी व राज्यों की तरफ से निर्धारित पुस्तकों की बजाय प्राइवेट स्कूलों का अपनी दुकान खोलकर सरेआम मनमाने तरीके से अपने विद्यार्थियों को पुस्तकें एवं अन्य शिक्षा की सामग्री बेचना यह साबित करता है कि शिक्षा के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ हो चुका है जिसका अंत बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। जिसकी भारी कीमत उन अभिभावकों को चुकानी पड़ रही है जो अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हर तरह का समझौता करने के लिए मजबूर है। क्या कोई बता सकता है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार स्कूलों की मनमानी फीस व तमाम तरह के थोपे गए खर्चों को किस तरह सहजता से सहन कर पाता है। ऐसी स्थिति में वह अपने आर्थिक संतुलन को ठीक करने के लिए हर रोज अनेक चुनौतियों से लड़ता है। बच्चे भी अपने माता-पिता की स्थिति को देखकर सहम जाते हैं। वे उस अनजान डर के साये में रहकर पढ़ाई करते हैं कि अगर वे कहीं असफल हो गए तो उनके माता-पिता यह सदमा नहीं झेल पाएंगे। गौर करिए हर साल ना जाने कितने बच्चे इसी डर की वजह से आत्मघाती कदम उठाकर दुनिया से चले जाते हैं और छोड़ जाते हैं एक सुसाइड नोट जिसमें इस बाजारू शिक्षा का नंगा सच शर्मसार करता रहता है। क्या वह समय आएगा जब समाज में सभी के लिए समान शिक्षा का स्वरूप कागजों की बजाय हकीकत में महसूस होगा। बेहतर शिक्षा बेहतर सुविधा से मिलती है यह सच है लेकिन वह बाजार में बोली लगाकर मूल्यों की बात करें यह सरासर छलावा होगा। अच्छी बात यह है कि इन सवालों के साथ अब आवाजें उठनी लगी हैं जाहिर आने वाले दिनों में बदलाव भी आएगा।

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