प्रिय रणघोष- पाठको
बींद और बावरी की लोकोत्तर प्रेमकथा ” होई जबै द्वै तनहुँ इक” सहस्रों साहित्य-प्रेमियों ने पढ़ी है, और कई सहस्र को इंतज़ार है इस रहस्यमय कहानी का अन्त जानने का। आपको याद होगा हमने तय किया था कि कहानी के अन्त का पूर्वानुमान करने वाले पाठक को पुरस्कृत किया जाये, और वह निर्णय आज भी अपनी जगह है। अब यह तय हुआ है कि इस कहानी का समापन दैनिक रणघोष के पृष्ठों पर किया जाये। मैं नतमस्तक होकर यह आग्रह स्वीकार करता हूँ। इस कहानी का लेखक होने के नाते मैं यह बताना चाहूँगा कि होकर भी इसका रचियता मैं नहीं हूँ। मैं आज तक भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि मैंने लिखी या फिर दैव ने यह कथा मुझ से रचवायी। यह एक स्वजन्मा कथा है, मैं बस लिखता गया।
हम सब इस कथा को, जो मुम्बई के एक व्यस्त चौराहे किंग्ज़ सर्कल से शुरू होकर हमारे आस पास के गाँव- देहात– कनीना, सीहोर, सांसरियों की ढाणी, बहरोड़, बाघोत आदि– से होती हुई पुष्कर पहुँचती है, अब एक साथ पढेंगे, यहीं, दैनिक रणघोष पर। समाप्त कहाँ होती है, मैं आपको इस समय नहीं बता सकता। कारण आप जानते हैं। इस कथा के सभी अध्याय क्रमवार प्रकाशित किये जायेंगे, 5 मई से। आपके प्रश्नों और प्रतिक्रियाओं के उत्तर भी आप दैनिक रणघोष में पढ़ सकेंगे। आशा करता हूँ आप और मैं मिलकर भावनाओं के सागर में डूबते उतरते, वास्तविकता के धरातल पर घट रही इस मिथकीय कथा का आनंद लेंगे।