ज़रूरत चेहरा साफ करने की है, आईना देखने की नहीं

देश के लिए निराशा की बात है कि जिम्मेदार लोग अब एक दूसरे को  धर्म के आधार पर देखने लगे है।


रणघोष खास.


देश में धार्मिक व सांप्रदायिक असहिष्णुता की दुश्वारियां बढ़ती जा रहीं है। कोई भी समझदार व्यक्ति इस सवाल के जवाब में सताधीशों से अपने गिरेबान में झांकने को ही कहेगा, लेकिन क्या किया जाए कि हमारे इन दिनों के नेताओं को इसका कतई कोई अभ्यास नहीं है, इसलिए वे चढ़ दौड़ने का विकल्प ही चुन लेते हैं.। अब देश में जो हालात पैदा कर दिए गए हैं, उन्हें लेकर चुप्पी साध लेने या शुतुर्मुर्गों की तरह रेत में सिर गड़ाकर तूफान टल जाने का इंतजार करने लगने को ही जायज माना जाएगा और अभिव्यक्ति का कोई भी खतरा उठाने की निंदा की जाएगी? अगर हां, तो किसी भी हाल में इसका प्रतिरोध क्योंकर टाला या खत्म किया जा सकता है? मैं एक भारतीय हूं क्या इतना कहना काफी नही है। दिन-रात अपना अपना राष्ट्रवाद दिखाने की बात असल में असुरक्षा की भावना को दर्शाती है। देखा जाए तो आज भारतीय समाज कोविड से पहले ही दो महामारियों- धार्मिक कट्टरता और आक्रामक राष्ट्रवाद का शिकार हो चुका है, जबकि इनके मुकाबले देशप्रेम ज्यादा सकारात्मक अवधारणा है। आज देश के लिए निराशा की बड़ी बात यह है कि जिम्मेदार लोग अब एक दूसरे को  धर्म के आधार पर देखने लगे है और उसके कथनों से सबक लेने व उसके आईने में हकीकत की शक्ल देखने के बजाय उससे ठकुरसुहाती की उम्मीद की जा रही है! यह बात भुलाकर कि आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी के भगत सिंह से भी मतभेद थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी, सुभाषचंद्र बोस से भी और बाबासाहेब आंबेडकर से भी, लेकिन इनमें से किसी के भी बीच मनभेद कभी नहीं रहा। इनमें से किसी ने भी एक-दूसरे के विचारों या फैसलों से असहमति जताते हुए किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं बरती। लेकिन अफसोस कि  सत्ता पर काबिज होने के लिए  देश की राजनीति पुराने इतिहास से लड़ाई छेड़कर नया इतिहास गढ़ने की धुन में मगन हो चुकी है। यह कारस्तानियां वैसी ही हैं जैसे कोई अपने चेहरे पर पड़ी धूल साफ करने के लिए चेहरे के बजाय उस आईने को साफ करने लगे, जिसमें वह नजर आ रही हो।

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