स्मृति शेष.. अनिल सिहाग..

शानदार रिपोर्टिंग पर हौसला अफजाई करने में सबसे आगे रहता था सिहाग


रणघोष खास. पत्रकार की कलम से


पत्रकारिता जगत का हमारा युवा साथी अनिल सिहाग इतनी जल्दी हमारे बीच से चला जाएगा। यकीन नहीं होता। पांच- सात दिन में उसका फोन जरूर आ जाता था। करीब 15 रोज पहले फोन आया था। एक- दो खबरों की तारीफ की। उसकी हौसला अफजाई इसलिए अच्छी लगती थी कि वह खबर पढ़कर ही टिप्पणी करता था। उस दिन उसने एक बात कहीं। भाई बच्चों का ख्याल रखना। मुझे लगा कि वह किसी काम में छोटी- मोटी सिफारिश की बात कर रहा होगा। मैने रूटीन की तरह हां में हां मिलाई ओर भूल गया। उसका अब कभी फोन नहीं आएगा। आमतौर पर पत्रकारिता में इस तरह के पत्रकारों की जमात लगभग खत्म हो गई जो एक दूसरे की रिपोर्टिंग की खुलकर तारीफ इसलिए करते हैं ताकि लिखने के अमादे में जोश मायूस ना हो जाए। सिहाग जितना बाहर से खुद को बेबाक और निर्भिक दिखाता उतना ही वह अंदर से बेहद संवेदशील था। इसलिए किसी पीड़ित को देखकर उसकी आवाज इधर उधर दौड़ने लगती थी। वह लगभग चैनल वाला खबरिया रहा। वह हालातों से भी खूब लड़ता रहा। पिछले एक दो सालों से  परिवार और बच्चों को लेकर वह चिंतित रहता था। आमतौर पर पत्रकारों की पीड़ा को इसलिए सहानुभूति नहीं मिलती क्योंकि वह सिस्टम में ताउम्र  दंबगईं, रसूकदार एवं प्रभावशाली के खिलाफ बेखौफ आवाज बनकर गूंजता रहता है। पत्रकार को पत्रकारिता में दीन- हीन, पीड़ित और शोषित वर्ग का नेतृत्व मिलता है।। हालांकि आज की पत्रकारिता इस मापदंड पर खरा उतरने के लिए खुद से संघर्ष करते हुए नजर आ रही है। अनिल ने अपने जीवन में किस लहजे ओर रंग की पत्रकारिता को जीया है यह उससे बेहतर कोई नहीं बता सकता था। इतना जरूर है कि पत्रकारिता के बाजार में अनिल एक बार उस शख्स तक जरूर पहुंचता था जहां पत्रकारिता अपनी मर्यादा और भरोसे के साथ शुरू होती है। आज के इस दौर में महेंद्रगढ़ जिले के गांव बोहका से निकले इस पत्रकार से  इससे ज्यादा उम्मीद क्या कर सकते हैं जो सही को सही और गलत को गलत कहने की जुर्रत पैदा करता हो। अनिल अब नहीं आएगा लेकिन इतनी जल्दी भूला दिया जाएगा। यह  कतई संभव नहीं है।

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