इस रिपोर्ट में छिपा है ममता की जीत का सच, जरूर पढ़े

प्रशांत छाप साबुन ने कैसे ममता की साड़ी को चमका दिया! 


सोचने की बात थी कि वामपंथी और कांग्रेसी वोटरों ने कैसे बीजेपी जैसी पार्टी को वोट दे दिया जो विचारधारा में उसके बिलकुल अलग थी? साफ़ था कि ये वामपंथी और कांग्रेसी समर्थक किसी बात से तृणमूल कांग्रेस और उसकी सरकार से बहुत नाराज़ थे और इस नाराज़गी के चलते ही उन्होंने अपनी विचारधारा से भी समझौता कर लिया।


5c04039b9af77 (2)रणघोष खास. बंगाल से नीरेंद्र नागर की कलम से


पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 में तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत के लिए सभी लोग ममता बनर्जी के नाम और काम को श्रेय देंगे, लेकिन इस जीत में प्रशांत किशोर की भूमिका बहुत बड़ी है। उन्होंने जिस तरह से इस चुनावी युद्ध की रणनीति बनाई, उसी का फल है कि तृणमूल को दो-तिहाई से ज़्यादा सीटें जीतकर सत्ता में आ रही है। इस लेख में हम यही समझेंगे कि किस तरह प्रशांत किशोर ने चुनावों के लिए तृणमूल की रणनीति का खाका खींचा और उसे अमली जामा पहनाया।आप सब जानते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बंगाल में काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया था हालाँकि तृणमूल का प्रदर्शन भी बुरा नहीं था। ऐसे में यह सवाल उठता है कि तृणमूल के बेहतर प्रदर्शन के बावजूद उसकी सीटें कम क्यों हुई। आइए, उसे हम नीचे समझते हैं।

सियासी समीकरण

मान लीजिए, एक पार्टी को 40% वोट मिलते हैं और उसके विरोधियों को 25%, 20% और 15% वोट मिलते हैं तो पहली वाली पार्टी हमेशा चुनाव जीतती रहेगी। लेकिन यदि वही 25 और 20 एक साथ हो गए तो सत्तारूढ़ पार्टी को मुश्किल हो जाएगी। बंगालमें कुछ-कुछ वैसा ही हुआ।पहले के समय में तृणमूल विरोधी वोट जो अलग-अलग पार्टियों में बँट जाते थे, वे उस बार एकजुट हो गए- यहाँ तक कि वामपंथी और कांग्रेस समर्थकों ने भी तृणमूल को हराने के लिए बीजेपी को वोट दे दिया। यहाँ सोचने की बात थी कि वामपंथी और कांग्रेसी वोटरों ने कैसे बीजेपी जैसी पार्टी को वोट दे दिया जो विचारधारा में उसके बिलकुल अलग थी? साफ़ था कि ये वामपंथी और कांग्रेसी समर्थक किसी बात से तृणमूल कांग्रेस और उसकी सरकार से बहुत नाराज़ थे और इस नाराज़गी के चलते ही उन्होंने अपनी विचारधारा से भी समझौता कर लिया।

नाराजगी किससे?

प्रशांत किशोर जब तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकार बनकर आए तो उन्होंने सबसे पहले इसी सवाल का जवाब खोजा। प्राथमिक सर्वे में उनको पता चला कि जनता की नाराज़गी ममता से कम और उनके लोगों और सरकार से ज़्यादा है। उन्हें लगा कि अगर जनता को एकमंच दे दिया जाए जहाँ वे अपनी शिकायतें रख सकें तो एक तरफ़ तो उनका ग़ुस्सा कम होगा और दूसरी तरफ़ उन शिकायतों के दूर करने का काम शुरू किया जा सकेगा। इसके लिए जनता से कहा गया कि उनकी जो भी समस्याएँ हैं, वे ममता बनर्जी को सीधे लिखें। इस कार्यक्रम का नाम था – दीदी के बोलो (दीदी से कहो)। इसके तहत लाखों की संख्या में चिट्ठियाँ और मेल आए और इनके अध्ययन से पता चला कि समस्या कहाँ-कहाँ है।

जनता की शिकायतें 

प्रशांत किशोर की टीम ने पाया कि जनता को दो तरह के लोगों से भारी शिकायत है। एक, सरकारी विभागों से जहाँ लोगों के छोटे-छोटे काम अटके पड़े रहते हैं और दो, तृणमूल के नेताओं से जो हर सुविधा  के बदले पैसे माँगते हैं। प्रशांत किशोर ने इसके लिए दो स्तरीय रणनीति बनाई। सरकारी विभागों से शिकायतों को दूर करने के लिए ‘दुआरे सरकार’ (सरकार आपके द्वार पर) का कॉन्सेप्ट चलाया। इसके तहत यदि आपको राशन कार्ड बनवाना है, जाति प्रमाणपत्र लेने हैं या ऐसा कोई भी काम करवाना हो तो अपने इलाक़े में ही लगने वाले शिविरों में जाएँ और अपना काम कराएँ। इस कार्यक्रम से आम जनता की कई शिकायतें दूर हुईं।

‘दीदी के बोलो’

‘दीदी के बोलो’ के तहत आई चिट्ठियों से प्रशांत किशोर को यह भी पता चला कि कौन-कौन से नेताओं या विधायकों से जनता को शिकायत है।प्रशांत किशोर ने ऐसे नेताओं की सूची बनाई और ममता से कहा कि उनको अगले चुनावों में टिकट न दिया जाए। जैसे ही इसकी भनक कुछ विधायकों को लगी, वे एक-एक करके पार्टी छोड़ने लगे।पिछले साल नवंबर-दिसंबर में और उसके बाद भी जिन तृणमूल विधायकों ने पार्टी छोड़ी थी, उनमें से बड़ी तादाद ऐसे ही लोगों की थी जिनका टिकट कटना पक्का था। पार्टी ने इनकी जगह नये लोगों को टिकट दिया। इससे भी जनता की नाराज़गी कम हुई।

सरकार के कार्यक्रम

जनता की नाराज़गी दूर करने के साथ-साथ प्रशांत किशोर ने सरकार की तरफ़ से कुछ कार्यक्रम भी शुरू करवाए, जैसे स्वास्थ्य साथी कार्ड, फ़्री राशन। फ़्री राशन जो लॉकडाउन के दौरान शुरू हुआ था, उसे चुनाव के बाद भी जारी रखने का आश्वासन दिया गया।महिलाओं के लिए 500 और 1000 रुपये का जेब खर्च देने का भी वादा किया गया। और भी कई कार्यक्रम घोषित किए गए। इन सबका वही असर हुआ जो ग़ुब्बारे के लिए रोते हुए किसी बच्चे को ग़ुब्बारे के साथ-साथ आइसक्रीम भी दिलाने पर होता है – उसकी शिकायत भी दूर और अतिरिक्त मिलने की ख़ुशी भी। जनता को शिकायत ममता से नहीं, उनके कुछ लोगों और सरकारी विभागों से थी। दूसरे शब्दों में जनता में ममता बनर्जी के प्रति विशेष प्रेम और सम्मान था। प्रशांत ने उनकी इस छवि को और चमकाने की कोशिश की। पहले उनको बांग्लार गोर्वो (बंगाल का गर्व) के रूप में प्रचारित किया गया जो चुनाव आते-आते ‘बांग्ला निजेर मेये केइ चाय’ (बंगाल अपनी बेटी को ही चाहता है) में बदल गया। इस तरह प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी को बंगाल और बंगाली की पहचान से जोड़ दिया।ममता बंगाल की एक ऐसी बेटी के रूप में प्रोजेक्ट की गई जो अकेले ही बीजेपी के उन बाहरी नेताओं की फौज से मुक़ाबला कर रही है जिनको बंगाल और बंगाली संस्कृति के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

रणनीति

प्रशांत किशोर की इस दोतरफ़ा रणनीति को आप बाहर से खेलकर आने वाली उस बच्ची की मिसाल से समझ सकते हैं जिसके शरीर पर बहुत ही धूल-मिट्टी लगी हुई है।

  • सबसे पहले उसे नहला-धुला कर धूल-मिट्टी हटाई जाए।
  • फिर पाउडर क्रीम करके लोगों के सामने पेश किया जाए

और फिर उसके मुँह से एक प्यारा-सा गाना गवाया जाए।

दाग़ी नेताओं को हटाना और जनता की शिकायतें दूर करना धूल-मिट्टी हटाने जैसा था। बंगाल के गर्व और बंगाल की बेटी के रूप में पेश करना उनकी छवि चमकाने के रूप में था। और बंगाली संस्कृति की एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर पेश करना गाना बच्ची के मुँह से गाना गवाकर जनता को लुभाने जैसा था।

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