भारत को संविधान नहीं धर्म, जाति की मानसिकता चला रही है

भेदभाव इतना स्वाभाविक होता है कि सामान्य व्यवहार का हिस्सा बन जाता है और हम उसे भेदभाव की तरह पहचान भी नहीं पाते। अगर भारत की महिलाओं के बीच सर्वेक्षण करके यही सवाल पूछा जाए तो शायद उनमें भी अधिकतर यही कहेंगी कि उनके साथ भेदभाव नहीं होता।


 रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से


क्या भारत में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव होता है? उत्तर हम सब जानते हैं। लेकिन अगर प्यू रिपोर्ट पर यक़ीन करें तो अधिकतर भारतीयों ने अपने जीवन में किसी प्रकार के जातिगत और धर्मआधारित भेदभाव का सामना नहीं किया है। संयोग ही है कि जब यह रिपोर्ट बाहर आई, आईआईटी मद्रास के एक अध्यापक ने यह आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया कि उनके साथ लगातार जातिगत भेदभाव किया जा रहा है। विपिन पुथियादेतवीतिल ने कहा कि भेदभाव करनेवालों में ताक़त की जगहों पर बैठे लोग शामिल हैं और वे हर प्रकार के राजनीतिक विचार के हैं और भेदभाव करनेवालों में पुरुष, स्त्री, दोनों ही शामिल हैं। आप प्रगतिशील रानजीतिक विचार के हो सकते हैं और जातिवादी भी। महिला भी जातिवादी हो सकती है। उसी प्रकार आप मुसलमान हों या ईसाई, जातिवाद का कीड़ा आपके भीतर हो सकता है। आप अत्यंत सुशिक्षित समाज के सदस्य हो सकते हैं और उतने ही शातिर जातिवादी भी। शिक्षा संस्थाओं में जातिवादी भेदभाव चतुराई से किया जाता है। प्रायः उसके सबूत नहीं छोड़े जाते। विभागों के अध्यापकों के बीच, जिनमें अनुसूचित जाति, जनजाति के लोग नगण्य संख्या में होते हैं, मूक सहमति बन जाती है कि यह संतुलन बनाए रखना है। यह अहसास अध्यापकों को और छात्रों को भी किसी किसी तरह करवा ही दिया जाता है कि वेकोटासे आए हैं और इसलिए प्रतिभाहीन हैं और उनका चयन एक विशेष कृपा है। और किसी प्रतिभावान के साथ अन्याय जिसकी जगह वे गए हैं।जातिगत भेदभाव जातिवाद से जुड़ा हुआ है। जातिवाद का सामान्य अर्थ है अपने हित को अपनी जाति के हित से जुड़ा महसूस करना। जाति भावना है, विचार है या विचारधारा? जाति का संबंध श्रेष्ठता और हीनता की भावना से अनिवार्यतः जुड़ा है। इसलिए जाति परस्परता का दूसरा नाम है। मेरी जातिगत श्रेष्ठता के लिए किसी का जातिगत रूप में हीन होना आवश्यक है। इसके साथ ही शुद्धता और दूषण जाति की संरचना के अनिवार्य घटक हैं। प्यू रिपोर्ट यह तो बतलाती ही है कि बहुसंख्या अपनी जाति के बाहर विवाह को बुरा मानती है और उनमें भी ज़्यादा लोग ऐसे हैं जो अपनी लड़कियों को जाति के बाहर विवाह करने से रोकना चाहते हैं। जाति के प्रश्न पर हमने ईमानदारी से सामूहिक चर्चा कभी नहीं की है। राजनीति ने इस द्वंद्व को सतही तौर पर सुलझाने की कोशिश ही की है। सामाजिक मनोविज्ञान के प्रश्न के रूप में इसे कभी लिया नहीं गया है। हम एक दूसरे के अगलबगल तो रहते हैं लेकिन साथ नहीं। अपने दायरों में बंद। दूसरों से यह कहते हुए कि आप बेवजह हमारे दायरे में घुसने की कोशिश करें। एक दूसरे से आशंकित, एक दूसरे से दामन बचाकर चलते हुए समुदायों के द्वीप भारत के महासागर में तैर रहे हैं। इस निःसंग उदासीनता की हिंसा कौन महसूस करता है  और किसे इससे सुविधा है?

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