ऐसे जैसे मेरे भीतर उतर रही है, धीरे धीरे। और साँझ होते ही….

होई जबै द्वै तनहुँ इक


प्यार की नयी परिभाषा ( अध्याय 9)


Babuरणघोष खास. बाबू गौतम

यह शख्स मुझे जानता हो, मुमकिन नहीं है। मैं ही इसके पास गया था, वह भी बेसाख्ता। यह मुझे ढूँढता हुआ नहीं आया है। लगता है यह कयास लगा कर खेल रहा है, और हर पत्ता सही गिर रहा है। मैं लंबे रास्ते से अपने घर तक गया। एक अजीब सी कैफ़ियत तारी थी। मैं इस भीड़ भाड़ वाले शहर में एक अनजान आदमी की गिरफ़्त में जाता जा रहा हूँ, और किसी को इस बात का आभास तक नहीं है। करवट बदलते रात कटी।  नींद के झोंके आते रहे। गोया मैं एक बैलगाड़ी मैं बैठा हूँ; सोया सा, जागता सा, जो मुझे मेरे अतीत में ले जा रही है।

अगले दिन मैं पहुँचा कि वह शुरू हो गया:

रास्ते में ही मैंने बावरी से पूछ लिया, अब तो सांसर औरतें शाप से मुक्त हो जाएँगी, तुम्हें क्या लगता है?

” जिनगी लांबी सयगी बींद जी। कून जाणे कब काईं होय। म्हें तो छोड़ आई गागड़िया।  मर जावां तो थे जाके बेरा ज़रूर करियो। शाप छूटयो के नाय। मरण तायं एक मरद री रहूं तायं तो शाप….” उसने रुक कर मेरी बाँह पकड़ ली।

उसकी आवाज़ में दर्द था और विश्वास भी।

मेरा घर गाँव से बाहर है।  पहुँचते ही मैंने कहा, ” मेरे पास कुछ नहीं है अब। दो किल्ले ज़मीन थी, सो तुझे पाने के लिए बेच दी।”

वह विस्मित सी नज़रों से चारों तरफ देखती रही। एक एक बात रुक रुक कर पूछती रही।

” ई घर थारो अपनो? या घर का साथ री दो बीघा ज़मीन बी थारी? या रूडी बी थारी? ये पेड़ खड़ा ये भी था रा? ”

मैं सिर हिला हिला कर हाँ भरता रहा। बावरी की आँखों में चमक बढ़ती गयी।

फिर भाग कर मुझ से लिपट गयी , ” थे तो राजा हो म्हारा बींद जी, राजा! म्हारो धन भाग राजा री रानी हाँ म्हें। ”

उसके भोलेपन और सच्चाई को देख कर मेरी आँख भर आई। बहुत हँसा और रोया हूँ मैं उसके साथ। यह जो मुस्कुराहट जिसे देख कर तुम मेरी ओर खिंचे आए थे, यह तो वह मुझे जाते जाते देकर गयी है।

दूसरे दिन छत पर गयी तो उसे मेरे गाँव का जोहड़ दिखा। खुशी से उछल पड़ी ।” म्हें तो सरग मा आ गयी बींद जी। बस एक गैया ला दो म्हाने। थारै सै काईं ना मांगू फेर मैं जीवन भर।”

मैं जैसे तैसे करके एक गाय ले आया।

आप को विश्वास नहीं होगा मित्र, उसने एक महीने में सब कुछ बदल दिया। दिन रात मेहनत करती थी। दो बीघा ज़मीन को हरा भरा कर डाला। दूध निकालती, बिलौती। गाय का चारा करती। हँसती खेलती हुई, सारे दिन काम करती रहती। मुझे भी काम में लगाए रखती। साफ सुथरा घर। धुले हुए कपड़े। धोए मंजे बर्तन। और खाना तो मैं सोच नहीं सकता था। दस तरह की तो कढ़ी बना लेती थी, सांटी की कढ़ी, पवांड की कढ़ी। जिस चीज़ को हम घासफूस समझ कर फेंक देते थे, वह हर चीज़ को इस्तेमाल में ले आती। ज़िंदगी ही बदल दी उस सांसर औरत ने मेरी। यह सब तो एक बात हुई, उसके साथ मैंने प्यार की नयी परिभाषा जानी।

प्यार आलिंगन और चुंबन नहीं है। प्यार एक बहुत पावन एहसास है। दिन भर वह मेरी आँखों में देखती रहती थी, रह रह कर। और अपने काम में लगी रहती। ऐसे जैसे मेरे भीतर उतर रही है, धीरे धीरे। और सांझ होते ही…

               क्रमश: जारी…..

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