होई जबै द्वै तनहुँ इक
ज़िंदगी: ना टापू है, ना आकाश में तैरता नगर ( अध्याय 10)
सांझ होते ही वह छत की ओर भागती,” आओ आओ बींद जी, सूरज नै बिदाई देवाँ।”
छत पर चढ़ कर चाँद, सूरज, तारों से अपनत्व की यह अनुभूति नई थी मेरे लिए। एक बच्चे के नये उत्साह से ब्रह्मांड को निहारना; लगा अद्भुत और विशाल से मुँह फेर कर सामान्य में बँधा हुआ था मैं, अब से पहले।
वह मेरे बहुत पास बैठती थी, पर कभी भी सट कर नहीं। मुझे याद है जब मैंने उसकी कमर पर हाथ रख लिया था।
‘” ऐंया ना, ऐंया कमज़ोर हो जावां, म्हें भी, थे भी. हाताँ रा प्यार प्यार कोनी, प्यार हथियान री कोसिस। दादी कही करी।” उसने धीरे से मेरा हाथ हटा दिया था।” बातां करो आछी आछी।” व्यक्तित्व की ऐसी गरिमा और नारीत्व का इतना अनुपम भाव मेरी सोच से बाहर था। सामीप्य और समर्पण के बीच भी थोड़ी सी जगह होती है, सांझे की जगह। कार्बन बॉन्डिंग तो पढ़ी होगी आपने, जिससे इस ऊर्जा और द्रव्य की सृष्टि में जीवन उत्पन्न हुआ।’
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। कौन है यह रेंगता हुआ अपाहिज जीव? आश्चर्य भी भय पैदा कर सकता है। ऐसा भय जो सम्मोहित कर दे।
अपना सिर झटका मैंने..”दादी कही करी”: सोचने लगा कैसे दुर्गम और निकृष्ट परिस्थितियों में भी शुभता अपनी राह बना कर उतरती है मानव मन में, पीढ़ी दर पीढ़ी। कठोर पहाड़ और उसके भीतर के सघन अंधेरे को चीर कर जैसे धरती तक पहुँचती है जल की धार।
उसकी आवाज़ मेरे कानों पर झरती रही। बावरी की छवि मेरी आँखों में तैरती रही। वह बोलता गया।
” मैं बहुत कम बोलता था। मुझे उसे सुनते रहने में आनंद का अनुभव होता था। उसकी बोली मुझे बहुत प्यारी ही नहीं, सच्ची लगती थी। शब्दों का आवरण नहीं था उसके भावों पर। मगर तुम…. तुम भी यह ठेठ राजस्थानी समझते हो?”
मेरी तंद्रा टूटी। मैं भूल गया था, यह कितना घाघ आदमी है। मेरे पैरों की ज़मीन को कुरेदता मेरी जड़ों तक पहुँचना चाहता है। मेरा अस्तित्व मिटाने का इरादा तो नहीं है, कहीं इसका? मैं इसको अपने बारे में कुछ नहीं बताऊँगा।
सकपका कर मैंने कहा, “नहीं, बस अंदाज़ा लगा कर समझ रहा था।”
वह हँसा। ” अंदाज़े क्यों लगा रहे हो. बोल देते…. चलो मैं तुम्हें हिन्दी में बताता हूँ। हर कहानी की कीमत भी तो चुकाने वाले हो।” उसकी मुस्कान में एक कुटिल सी रेखा उभरी।
छत पर रोज़ वह मुझे एक कहानी सुनाती थी। साथ में गीत गाती। एक अलग सी आवाज़ थी उसकी। नीचे के सुरों में बहुत मीठी, और फाल्सेटो में जाती तो लगता क्षितिज के पार कोई गा रहा है। पहले दिन उसने मुझे सुनाई थी- ईसर और गौरा की कहानी। एक अलग ही कहानी है जो मेरी तुम्हारी दुनिया में ना कभी किसी ने कही, ना किसी ने सुनी। साथ में गीत गाती रही- थे ईसर मेंह गौरा भंवर जी…..!
उसका स्वर अचानक बदल गया।
” ना जाने क्यों बीच बीच में एक भय मेरे मन में हल्की सी चीख मारता था- ‘ ज़िंदगी इतनी खूबसूरत नहीं हो सकती! कदापि नहीं हो सकती!’ हमें इस धरती पर आकर अपना अपना स्वर्ग बनाने का अवसर मिलता है। अधिकतर तो हम खुद ही भटक कर नरक की राह ले लेते हैं। स्वर्ग बन भी जाए तो उसे नरकों के बीच नरक होना ही पड़ता है। ज़िंदगी ना तो एक टापू है, और ना ही आकाश में तैरता हुआ नगर। मैं जानता था मैं कीचड़ में पैर रख कर अपने आँगन में लौटा हूँ।”