होई जबै द्वै तनहुँ इक
अनबीता अतीत (अध्याय 12)
समय बीत जाता है, पर उसका कोई अनबीता टुकड़ा हमारे साथ साथ चलता रहता है। दामन में उलझ कर।
एक से आठ गाएँ हो गयी हमारे पास। आते वक़्त का धागा तो कैसे ना कैसे सुलझ ही जाता है। बावरी ने अपने पावन हृदय और सरल स्वभाव से गाँव का मन भी जीत लिया था। जिस सांसरणी के साये से गाँव की औरतें दूर भागती थी, वही बावरी दुल्हन सब की चहेती बन गयी। कभी दूध छाछ के लिए तो कभी कभी साग सब्ज़ी के लिए, घर में बच्चों और औरतों का ताँता लगने लगा। औरतें मुझे बावरी का बींद कहके ठिठोली करती। ताने भी मारती- ” कभी माँ की अंगुली नहीं पकड़ी, अब सारे दिन सांसरणी का पल्लू पकड़ के बैठा रहता है।”
मुझे लगता था, बावरी को मैंने एक पल भी छोड़ दिया तो उड़ कर क्षितिज के पार चली जाएगी। कई बार लगता बावरी सचमुच की औरत नहीं है। मेरी कल्पना है। इस कल्पना का तार टूटा कि वह अदृश्य हो जाएगी।
दोनों लगकर जोहड़ से कोई चालीस मटके पानी लाते। हमारी दो बीघा ज़मीन बारह महीने हरी भरी रहती थी। कभी सब्ज़ी, कभी धान, तो कभी गायों के लिए चारी। प्यार में आदमी पहाड़ काट सकता है, धरती को नाप सकता है।
बरस बीत गये पर बावरी की गोद हरी नहीं हुई। मुझे इसका अफ़सोस नहीं था। मैं प्यार में सराबोर था। उम्र पड़ी थी, पर औरत का मन डर पकड़ लेता है। अब तक नहीं हुए तो आगे कैसे होंगे। कानों में पड़ने लगा था, ” सूणी का क्या सिर में मारै, जो जने नहीं वो जड़ से सूखी।”
मुझे बोल ब्याह की बात याद आ जाती– गोद मा खेलें पुरखिए मैं माई तू बाप। जो लोग संतान को अपने पुरखों का पुनर्जन्म मानते हैं, उनके यहाँ बच्चा नहीं होना, कितनी दुखदायी गति मानी जाती होगी।
मुझे खुश रखने में और जी जान लगाने लगी। मुझे कई बार लगता मुझ में ही वह अपना बच्चा देख रही है। पर उसकी आँखों में कहीं गहरे छिपी पीड़ा मुझे दिख जाती थी। मैं उसे दिलासा देता- ‘बच्चा ना भी हुआ तो..’
इतना बोलते ही वह मेरे होठों पर अंगुली रख देती।”
उसने एक लंबी साँस ली।
” ईसर और गौरा की कहानी जाने बिना तुम मेरी और बावरी की जीवनकथा नहीं समझ पाओगे। चाहो तो तुम मुझे उसकी कीमत मत देना।”
मैं मौन था। वह लौट कर अपनी बीती दुनिया में आ गया।
” इसी बीच मुझे एक दिन पता चला। वे दोनों आ गये हैं। मेरे मन के गहरे अंधेरे में छुपा डर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया था। मुझे लग रहा था, दुर्भाग्य मेरी ओर चल कर आ रहा है।
इतने सालों से इन दोनों का कोई पता नहीं था। कोई कहता था बंबई में हैं तो कोई बोलता कलकत्ता में हैं। पैसे कमाते हुए, पैसों से औरत खरीदते हुए, ये वापस मेरे करीब आ गये हैं। मैं जानता था इन दोनों के साथ मैंने कुछ वक़्त बिताया है जो मेरी स्मृति में एक गंदी नाली की तरह बह रहा है। इन्हीं के साथ तो मैं ढाणी गागड़िया गया था। इन्हीं की वजह से तो मैं बावरी… नहीं सीतडी सांसर.. नहीं बावरी… से मिला था।”
उसका स्वर धीमा होता जा रहा था।
” अभी तुम जाओ दोस्त। पर पहले, ईसर और गौरा की कहानी। दिल करे तो कल आ जाना।…..
क्रमश: जारी..