रणघोष की सीधी सपाट बात:

दानवीरों के सहयोग से शहर में चल रही शिक्षण संस्थाओं की अजीबों गरीब तस्वीर


जो इन संस्थाओं के मेंबर-पदाधिकारी है उनके बच्चे दूसरे स्कूलों में पढ़ते हैं यह कैसी समाजसेवा..


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


दानवीरों व या किसी समाज विशेष के प्रयासों से कई सालों चल रही शिक्षण संस्थाओं की  अजीबों गरीब तस्वीर ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इन संस्थाओं के होने वाले चुनाव में जिस तरह की सरगर्मियां, एक एक वोट के लिए उम्मीदवार अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं। आरोप प्रत्यारोप लगाने से लेकर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। पूरी चौधर कायम करने के लिए वो सब करते हैं जो एक नेता अपने चुनाव में करता है। इतना सबकुछ करने के बाद हैरान करने वाली बात यह है कि जो पदाधिकारी या सदस्य चुनाव जीतकर जिस शिक्षण संस्था की बेहतरी का घोषणा पत्र तैयार कर उसे अमल में लाने का दावा करते हैं उनके परिवार के बच्चे ही दूसरी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण ग्रहण करते नजर आते हैं। शिक्षा जगत में आज तक इस सवाल का ईमानदारी से जवाब नहीं मिला कि सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षक अपने बच्चों को अपने साथ क्यों नहीं पढ़ाते। इसी तरह ट्रस्ट के तौर पर चल रही शिक्षण संस्थाओं के सदस्य व पदाधिकारी अपने बच्चों का दाखिला अपनी ही संस्थाओं में कराने से क्यों बचते हैं। फिर वे क्या  सोचकर इस संस्थाओं के बेहतर स्तर होने का दावा करते हैं। क्या यह सीधे तौर पर उनकी कथनी- करनी के असली चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण नहीं है।

पिछले कुछ माह से रेवाड़ी में ट्रस्ट के सहयोग से चल रही शैक्षणिक संस्थानों की प्रबंधन समिति के चुनाव को लेकर माहौल पूरी तरह से गरमाया हुआ है। सैनी स्कूल व हिंदू हाई स्कूल समिति के चुनाव पिछले दिनों संपन्न हुए हैं। इससे पूर्व पब्लिक एजुकेशन बोर्ड के तहत  आने वाले केएलपी कॉलेज, आरडीएस गर्ल्स कॉलेज, सतीशबीएड एवं सतीश स्कूल के अलावा  महाराजा अग्रसैन स्कूल, विश्वकर्मा स्कूल के चुनाव हुए। जब इन संस्थाओं के चुनाव नजदीक आते हैं तो माहौल पूरी तरह राजनीति अंदाज में बदल जाता है। एक एक वोट के लिए उम्मीदवार दिन रात मेहनत कर पसीना बहाते हैं। रूठों को मनाना, पानी की तरह पैसा बहाना सबकुछ एक आम चुनाव की तरह का नजारा इन चुनावों में स्पष्ट नजर आता है। प्रत्याशी अपनी संस्थाओं की बेहतरी के लिए बड़े बड़े दांव का घोषणा पत्र भी जारी करते हैं। वो सबकुछ करते हैं जो उन्हें वोट दिला दें। कई सालों से चुनाव में यह नजारा अब आम हो चुका है। शहर  की नाम हस्तियां इस तरह के चुनाव में खुलकर सामने आती हैं। आर्थिक संपन्ता का रूतबा भी चुनाव में साफ नजर आता है। बड़े- बड़ें दावें किए जाते  हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद जितनी भी संस्थाओं के पदाधिकारी एवं सदस्य समाज व समाजसेवा के नाम पर जो दावा करते हैं वह महज  लोकप्रियता पाने का जरिया ज्यादा होता है। इसलिए जितनी भी ट्रस्टी शिक्षण संस्थाएं हैं उसमें 800 से लेकर 8 हजार से ज्यादा मतदाता, पदाधिकारी एवं सदस्य होते हैं उसमें 90 प्रतिशत सदस्य एवं पदाधिकारियों ने अपने बच्चों का दाखिला बजाय अपनी इन संस्थाओं में कराने के  अन्य स्कूलों में कराया हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे में वे किस हैसियत से यह दावा करते हैं कि उनके संस्थान का शिक्षा स्तर सबसे बेहतर व सभी सुविधाओं से लैस है। सही मायनों में समाज द्वारा संचालित स्कूलों में सदस्य वहीं बने जो सबसे पहले अपने बच्चों का दाखिला कराए। खुद से उदाहरण बनकर ही बेहतर बदलाव आ सकता है वरना इन संस्थाओं का वजूद महज चौधर बनाए रखने के इस्तेमाल के लिए रह जाएगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *