अच्छा है सत्यनारायण चुपचाप चला गया, एक पत्रकार की अहमियत तब तक है जितनी वेश्या की जवानी..

–असल सच यह है कि मौजूदा बाजारू पत्रकारिता में एक पत्रकार की मौत इसलिए मायने नहीं रखती क्योंकि उसकी अहमियत तब तक है जब तक एक वेश्या में  जवानी रहती है। एक पत्रकार की मौत के पीछे छिपे संघर्ष का सच सामने नहीं आता अगर उस अखबार का मालिक पेशे से पत्रकार नहीं होता। जो खुद में बड़ा मीडिया- अखबार होने का दावा करते हैं  उनके  रंगीन पेजों पर अमीर घरानों के मालिकों के स्वास्थ्य की चिंता की जाती है। एक पत्रकार की मौत खबर इसलिए नहीं बनती की उससे अब कोई फायदा मिलने वाला नहीं है। इसलिए हम भी सत्यनारायण को इस कवरेज के बाद भूल जाएंगे वजह हमें भी इस पत्रकार से अब कुछ मिलने वाला नहीं है..।


रणघोष खास. प्रदीप नारायण


हरियाणा में रेवाड़ी जिला के गांव कोसली का 39 साल का पत्रकार सत्यनारायण भारद्वाज अब कैमरे के साथ खबर कवरेज करते हुए नजर नहीं आएगा। पांच दिन पहले वह इस  दुनिया से चला गया। कायदे से यह  कोई खबर भी नहीं है। बस इतनी सी बात है कि  सत्यनारायण पिछले तीन चार सालों से बीमार चल रहा था। छाती पर एक फूंसी उसके लिए नासूर बन गई थी। दोस्तों ने कहा कि अच्छे डॉक्टर्स से इलाज क्यों नहीं कराते। वह बहाना बनाकर टालता रहा। हालत ज्यादा बिगड़ने लगी तो करीबी दोस्त सनदेव ने पूछ ही लिया कि आखिर चाहता क्या है। सत्यनारायण ने जो जवाब दिया उसने हम जैसे पत्रकारों को यह सब लिखने के मजबूर कर दिया। उसके इलाज पर 3 से 4 लाख रुपए का खर्च आ रहा था। एक बड़े परिवार की जिम्मेदारियों में उसके लिए इलाज की यह राशि बहुत बड़ी थी। उसने कहा कि इलाज कराऊ या परिवार चलाऊ। स्वाभिमानी था इसलिए किसी के आगे गिड़गिड़ा भी नहीं सकता था। नतीजा चुपचाप दुनिया से चला गया। एक फोन की आवाज पर सारे जहां की चिंता करने वाला यह पत्रकार अपने पीछे ऐसे अनगिनत सवाल छोड़कर चला गया जिसमें मीडिया का असली दंश छिपा हुआ था। कितना आसान होता है कि किसी खबर पर किसी पत्रकार को बिकाऊ, चाटुकार, ब्लैकमेलर कहना। ऐसा करने वाले होंगे इसमें कोई दो राय नहीं।  लेकिन सत्यनारायण तो ऐसा नहीं था। अगर ऐसा होता तो उसके लिए इलाज की यह राशि कोई मायने नहीं रखती। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर समाज ने सत्यनारायण की कितनी चिंता की। ऐसा तो नहीं है कि तीन साल से बीमारी से लड़ रहे इस युवा पत्रकार के दर्द से कोई रूबरू नहीं हुआ हो। पत्रकारों को नसीहत- नैतिकता- निष्पक्षता का पाठ पढ़ाने वाले और खबरों में बने रहने के शौकीन सामाजिक- राजनीतिक और धार्मिक संगठन के वे पदाधिकारी कहां है जो खबर नहीं छपने पर इस कदर नाराज हो जाते थे मानो पत्रकार ने संगीन अपराध कर दिया हो। सत्यनारायण की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है । 9 साल पहले इसी समाज ने इस युवा पत्रकार को पगड़ी पहनाई थी कि वह अपने बड़े भाई हरिराम भारद्वाज जो एक प्रदेश  स्तरीय चैनल में रिपोर्टर थे की पत्रकारिता की विरासत को जारी रखेगा। हरिराम भारद्वाज की रात के समय किसी घटना की कवरेज करते समय सड़क पर चल रहे बुलडोजर से बाइक टकरा जाने से मौत हो गई थी जबकि पीछे बैठा सत्यनारायण घायल हो गया था। उस समय यह युवक अपने पत्रकार भाई के लिए बतौर कैमरामैन काम करता था। बाद में चैनल ने उसके भाई की जगह उसे यह जिम्मेदारी सौंप दी थी। हरि राम भारद्वाज के परिवार की जिम्मेदारी भी सत्यनारायण  के कंधों पर आ गई थी। सोचिए ऐसे हालात में स्थानीय स्तर पर एक पत्रकार किस तरह मानसिक- शारीरिक- आर्थिक तौर पर खुद से रोज लड़ता हुआ आमजन की आवाज बनता है। सत्यनारायण जैसे हजारों पत्रकार इसी तरह रोज अपने दर्द को सीने में छिपाए 24 घंटे समाज की दुख तकलीफों व परेशानियों  को दूर करने के लिए सिस्टम से लड़ते हैं । दुर्भाग्य देखिए यही समाज जब सत्यनारायण जैसे पत्रकार की मौत की खबर सुनता है तो गूंगा बहरा नजर आने लगता है। यह समाज की गलती नहीं है। असल सच यह है कि मौजूदा बाजारू पत्रकारिता में एक पत्रकार की मौत इसलिए मायने नहीं रखती क्योंकि उसकी अहमियत तब तक है जब तक एक वेश्या की जवानी रहती है। एक पत्रकार की मौत के पीछे छिपे संघर्ष का सच सामने नहीं आता अगर उस अखबार का मालिक पेशे से पत्रकार नहीं होता। जो खुद में बड़ा मीडिया- अखबार होने का दावा करते हैं  उनके  रंगीन पेजों पर अमीर घरानों के मालिकों के स्वास्थ्य की चिंता की जाती है। एक पत्रकार की मौत खबर इसलिए नहीं बनती की उससे अब कोई फायदा मिलने वाला नहीं है। इसलिए हम भी सत्यनारायण को इस कवरेज के बाद भूल जाएंगे वजह हमें भी इस पत्रकार से अब कुछ मिलने वाला नहीं है..।

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