केएलपी कॉलेज के बहाने प्रोफेसर- शिक्षकों का सच भी जान लिजिए

  स्कूल- कॉलेज- यूनिवर्सिटी में शिक्षक अब  एक दूसरे को नीचा दिखाने का वेतन लेते हैं


रणघोष खास. सुभाष चौधरी

रेवाड़ी शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज की प्राचार्य डॉ. कविता गुप्ता ने अपनी तरक्की के लिए जो दस्तावेज जमा कराए। उसे उनके प्रतिद्धंदी एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अभय सिंह ओर उनका सहयोग कर रहे डॉ. गजेंद्र सिंह जो खुद सरकारी कॉलेज में प्रोफेसर है ने विवादित बना दिया है। यह लड़ाई प्राचार्य पद को लेकर काफी लंबे समय से चल रही है। शिक्षण संस्थानों में अब इस तरह के मामले रूटीन की तरह हो गए हैं। ऐसा कोई संस्थान नही बचा जहा शिक्षकों में गुटबाजी, एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, नीचा दिखाना और निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए तमाम तरह के हथकंडों को अपनाने का खेल नही चलता हो। वजह भी साफ है जहां शिक्षकों की नौकरी पूरी तरह से सरकारी छत्र छाया में सुरक्षित है। वहा अधिकतर शिक्षकों का दिमाग विद्यार्थियों के बेहतर भविष्य बनाने की बजाय अपने हितों को पूरा करने में दौड़ता रहता है। इन शिक्षकों में ईमानदारी का जन्म उस समय होता है जब खुद के हितों को चुनौती मिलना शुरू हो जाती है। इंदिरा गांधी यूनिवर्सिटी मीरपुर इस तरह के मामलों में पीएचडी की उपाधि हासिल कर चुकी है जबकि कॉलेजों में इस तरह के मामलों में रिसर्च जारी है।

 एक समय था जब केएलपी समेत अनेक सरकारी स्कूल, कॉलेज के नाम की गूंज प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर गूंजती रही है। यहा से शिक्षा ग्रहण करने वाले हजारों विद्यार्थी आज भी प्रतिभा का डंका बचा रहे हैं। वर्तमान में अधिकतर ये संस्थान अपने पुराने वजूद को हासिल करने के लिए चारों तरफ से संघर्ष करते हुआ नजर आ रहे है। जहां तक केएलपी कॉलेज का सवाल है। प्राचार्य डॉ. कविता गुप्ता के दस्तावेजों  को  लेकर मीडिया में जो शोर मचा है। वह सीधे तौर पर एक दूसरे की छवि को धूमिल करने का प्रयास है। प्रोफेसर अभय सिंह और डॉ. गजेंद्र यादव ने जो सबूत पेश किए उसमें ताकत नजर आ रही है। इसलिए वे पूरी जिम्मेदारी के साथ मीडिया के सामने आए हैं। जांच के बाद ही असल सच सामने आएगा। डॉ. गजेंद्र यादव इससे पहले भी आरटीआई लगाकर कई मामलों में सुर्खियों में रहे हैं। अहीर कॉलेज प्रंबंधन ने तो उनके खिलाफ तक दर्ज करा दिया था जिसकी लड़ाई कानून की तारीखों पर लड़ी जा रही है। इससे पहले वे आईजीयू में भी आरटीआई लगाकर कई तरह के खुलासे कर चर्चा बटोरते रहे हैं। दरअसल इस केस में  सारी एक्सरसाइज ही प्राचार्य की कुर्सी को लेकर है। लगभग इस तरह के मामले अन्य शिक्षण संस्थानों में तभी उजागर होते रहे हैं जब वेतनभोगी शिक्षकों के निजी हित टकराते हो। अब सवाल उठता है कि इस तरह के  मामलों के सार्वजनिक होने पर छात्रों पर कितना असर पड़ेगा। क्या गुरु- शिष्य की गरिमा यहा खंडित नही हो रही है। ऐसी स्थिति में क्या शिक्षक अपने छात्रों के सामने खड़े होकर ईमानदारी से पढ़ा पा रहे हैं या विद्यार्थी अपने शिक्षकों का यह चरित्र देखकर उनसे पढ़ने की मानसिकता बना पा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नही मौजूदा हालात में अधिकतर शिक्षक नही पढ़ाने के नाम पर लाखों रुपए का वेतन ले रहे  हैं। इसमें भी अधिकांश की उपलब्धियां मांगी जाए तो वे पूरे समय अपनी खुद की संतानों को कामयाब बनाने में जी तोड़ मेहनत करने के अलावा कुछ नही कर पाए। एक भी शिक्षक यह बताने या दावा करने की स्थिति में नही है कि उसने अपने स्तर पर एक ऐसे विद्यार्थी को सफल बनाया है। जो आर्थिक  और पारिवारिक तौर पर कई चुनौतियों से लड़ रहा था और शिक्षक ने आगे आकर उसके सिर पर हाथ रखकर सफल बनाया हो। आईजीयू में तो  कई बार शिक्षकों ओर विद्यार्थियों में मारपीट तक की घटनाए हो चुकी हैं।   

 आइए वेतनभोगी और शातिर शिक्षकों के मूल चरित्र को इस तरह समझे

         जो शिक्षक प्रवचन ज्यादा देता हो, खुद को बेहतर साबित करने का उदाहरण पेश नही कर पाए समझ जाइए वह महज कागजी वेतनभोगी शिक्षक है

        जो शिक्षक अपने मूल विषय में विद्यार्थियों को सफल नही बना पाया ओर इधर उधर की गतिविधियों में सुर्खिया बटोरता रहा। समझ जाइए वह शिक्षा के नाम पर शातिर शिक्षक है

        जो शिक्षण संस्थान मीडिया में मजबूत धरातल  पर  कमजोर नजर आता हो मानकर चलिए वह बाजारू शिक्षक है जो शिक्षा का शोर मचाकर अपने फायदे के लिए  उसे सूचनाओं के बाजार में बेच रहा है

        क्या कोई शिक्षक ईमानदारी से स्वीकार कर सकता है की वह प्रति माह लाखों रुपए वेतन लेने के बावजूद विद्यार्थियों के बेहतर भविष्य निर्माण में असफल होने की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं।

        शिक्षण संस्थानों को बेहतर माहौल ओर व्यवस्था प्रदान करने के लिए गठित प्रबंधन समिति ने क्या कभी अपने गिरेबां में झांक कर देखा है की वे क्या सोचकर चुनाव के माध्यम से समिति में आते हैं। अगर प्रबंधन बेहतर सोच के साथ मजबूत होता तो मजाल नही शिक्षण संस्थानों का स्तर गिरता चला  जाए।