रणघोष खास. सिद्धार्थ शर्मा
साहित्य किसी मौलिक विचार की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है और मीडिया किसी विषय को व्यापक रूप देता है। साहित्य विचार प्रधान होता है और मीडिया विषय प्रधान। साहित्य व्यापक न भी हो तो साहित्य ही रहता है, जैसे कालिदास का रघुवंश ज्यादा लोग न भी पढ़े हों, तो भी वो साहित्य ही रहेगा, पर यदि कोई अखबार 50 लोग भी न पढ़ें तो वो मीडिया नहीं माना जाएगा। मीडिया में विचार की गुणवत्ता कम और विषय को गणना में अधिक लोगों तक पहुंचाना महत्वपूर्ण होता है, साहित्य में किसी मौलिक विचार को सार्वजनिक भर कर देना पर्याप्त होता है। साधारण भाषा में कहें तो मीडिया = प्रचार का तंत्र, और साहित्य = विचार का मंत्र। प्राचीन भारत की परंपरा हो या वर्तमान एडवान्स्ड साइंस की विधा हो, दोनों में विचार के आधार पर ही निष्कर्ष पर पहुंचना अनिवार्य रहा। परन्तु वर्तमान में भारत हो या विश्व भर की मास साइकोलॉजी, दोनों में आज प्रचार के आधार पर ही निष्कर्ष निर्माण किये जा रहे हैं। कारण है कि साहित्य की मौलिकता थोड़ी कठिन होती है, समझने में जटिल होती है, इसीलिए विचारों की व्यापक पहुँच कम होती है। विषय आसान होते हैं, रोज नए होते हैं, इसीलिए मीडिया का प्रचार बहुत व्यापक होता है।हाथी और पांच अंधों की कहानी सब जानते हैं। किसी ने हाथी को सूप माना, किसी ने सांप, तो किसी ने खंबा। ऐसा इसीलिए कि यदि परिभाषाएँ गलत होंगी, तो निष्कर्ष भी गलत ही होंगे। जैसे लोकतंत्र की परिभाषा = लोक का तंत्र या लोक को नियंत्रित करने का तंत्र? मीडिया = सूचना का बड़े पैमाने पर प्रसार या पीत पत्रकारिता? जैसे सिर्फ चुनाव = लोकतंत्र नहीं होता क्योंकि उत्तर कोरिया, रूस और चीन में भी चुनाव होते हैं, पर कोई उन्हें लोकतंत्र नहीं मानता। लोकतंत्र की सही परिभाषा = जहां नियंत्रण और संतुलन हो, स्वतंत्र मीडिया हो, स्वतंत्र न्यायालय हों, स्वतंत्र विश्वविद्यालय हों, स्वतंत्र अभिव्यक्ति हो, सत्ता का विकेंद्रीकरण हो, राष्ट्र से लेकर मोहल्ले/गाँव तक की अलग अलग इकाइयों को इकाईगत स्वतंत्रता हो। तो सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए परिभाषाओं का सही होना अनिवार्य है। आदि शंकराचार्य ने हजार साल पहले कहा कि प्रत्येक चैतन्य में 5 लक्षण होते हैं: सत् चित आनंद, मुमुक्षा (स्वतंत्रता) और ईषना (दूसरों को प्रभावित करना)| तो दूसरों को प्रभावित करने की इच्छा ही मीडिया के उद्भव का कारण है। यहां आकर सवाल उठा कि अन्य को प्रभावित कैसे करें? दुनियाभर के दूसरे चैतन्य जीवों से भिन्न आदि मानव ने भाषा प्राप्त करते ही समझ लिया कि कहानियाँ गढ़कर दूसरों को प्रभावित करना सबसे सरल मार्ग है। तो, तबसे ही मानव सभ्यता ने कहानियां गढ़ना शुरू कर दिया, और यही बात मनुष्य को अन्य जानवरों से अलग भी करती है। कहानियों में अज्ञात लोगों को एक साथ लाने और सामूहिक रूप से काम करने की शक्ति होती है। उदाहरण के लिए भगवान, पैसा, धर्म, राजनीति आदि ऐसी ही काल्पनिक कहानियां हैं जिन्हें एक दूसरे से अपरिचित लोग भी समान रूप से मानकर एक ही काम करने लगते हैं। तो, संपूर्ण मानव विकास और सभ्यताएं कहानियां गढ़ने पर ही आधारित हैं। तो प्रश्न उठता है कि कहानी = ? उत्तर है कि कहानी सुनाना कुछ और नहीं बल्कि कुछ सूचनाओं को व्यापक रूप से प्रसारित करना है। क्योंकि पहले सूचना की अधिकतम पहुंच सीमित थी, इसलिए चर्चा भी सीमित थी, तो यदि किसी कहानी में लोकतंत्र नामक कोई नई इकाई लोगों में लोकप्रिय हुई भी तो सीमित भौगोलिक क्षेत्रों में। इसलिए लोकतंत्र वैशाली जैसे ग्राम गणराज्य हों या प्राचीन यूनानी लोकतांत्रिक नगर, ये सर्व व्याप्त नहीं हो सके। तो हजारों साल तक ऐसा ही चला। फिर यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति आई। और फिर गुटेनबर्ग द्वारा प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार करने के बाद यह सब बदल गया। अब सूचना बड़े पैमाने पर बहुत लोगों तक पहुंचने लगी, तो उपकरण भी सर्वव्यापी होते गए, अर्थव्यवस्था भी और लोकतंत्र भी दुनियाभर में फैलने लगा। मगर सूचना उछाल के साथ, बुरी सूचना का दौर भी आना स्वाभाविक ही था। अच्छी और सही सूचना को बुरी और गलत सूचना से छांटने की लिए, फ़िल्टर करने के लिए विशेषज्ञों को नियुक्त किया गया। तो वे संपादक बन गए। तो संपादकों ने सुनिश्चित किया कि बुरी सूचनाओं को नजरअंदाज किया जाए, फेक न्यूज को फिल्टर किया जाए और नफरत भरी खबरों पर प्रतिबंध लगाया जाए। बुरी के स्थान पर केवल अच्छी सूचना, सत्यापित समाचार और सामंजस्यपूर्ण समाचार प्रसारित होने शुरू हुए। भले ही कल 1000 लोग किसी स्थापित अखबार के कार्यालय पर आकर कहें कि पृथ्वी चपटी है, पर कोई सम्पादक इसे अपने अखबार के शीर्षक के रूप में प्रकाशित नहीं करेंगे। दुनियाभर में जितने भी सामाजिक सरोकार वाले महत्वपूर्ण लोग हुए, चाहे अच्छे या बुरे, कहीं न कहीं वे सम्पादक ही थे। चाहे इतालवी बेनिटो मुसोलिनी हो या रूसी लेनिन, दोनों अखबार के सम्पादक ही थे। भारत में भी गांधीजी, लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष, यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी भी सार्वजनिक जीवन में उतरने से पहले संपादक ही थे। तो ये मीडिया का विकास था।
एआई का दौर
अब आते हैं वर्तमान में। 2011 में अचानक विंडोज़ ने पहला व्यावसायिक रूप से प्रयोग करने योग्य AI speech recognition लाँच किया जिसे Roomba कहा जाता था। रूम्बा नाम के इस कृत्रिम बुद्धि (AI) ने आकर पूरे मीडिया के मापदंडों में उलटफेर कर दिया। ध्यान रहे, संपादक एजेंट या प्रतिनिधि होते हैं, मशीनें उपकरण या टूल होती हैं, पर AI स्वतंत्र है, स्वच्छंद है। संपादकों को दंडित किया जा सकता है, मशीनें बंद की जा सकती हैं, पर AI मानव हस्तक्षेप के बिना चलता रहता है। AI को न सांस के लिए ऑक्सीजन चाहिए, न पानी चाहिए, न रेस्ट चाहिए, न नींद चाहिए। AI -24 घंटे, 365 दिन, दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ते ही रहता है। इसीलिए आज हमारे फोन पर जो इंटरनेट है, उसका 63% कंटेंट, विषयवस्तु मानव निर्मित न होकर AI निर्मित है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि AI से बेरोजगारी बढ़ेगी। ड्राइवर, शिक्षक, बैंक क्लर्क आदि बेरोजगार हो जाएंगे। ये सब बाद में बेरोजगार होंगे। AI ने तो सबसे पहले संपादकों को अप्रासंगिक बना दिया है। भारत में सर्वाधिक पाठकों वाले समाचार पत्र की संख्या 35 लाख है, एक टीवी समाचार चैनल की उच्चतम दर्शक संख्या 25 लाख है, लेकिन रूपल चौधरी नामक किसी व्यक्ति के पास 5 बिलियन यूट्यूब व्यूज हैं। एक ऐसा नाम जिसे हम नहीं जानते हुए भी कहीं न कहीं उनके वीडियो किसी न किसी बहाने हमारे फोन स्क्रीन पर चल चुके हैं, इसीलिए तो 8 अरब मानव जनसंख्या के लगभग दो तिहाई मानवता ने उन्हें देखा है। किसने रूपल चौधरी को इतनी व्यापकता दी? किसी दूसरे मनुष्य ने तो निश्चित नहीं दी होगी। ये व्यापकता दी algorithm, AI की विशिष्ट गणना विधा ने।आज ChatGPT या हमारे WhatsApp का AI हमारे फोन पर लगभग कुछ भी कर सकता है। फेसबुक की नागरिकता 300 करोड़ है, Whatsapp पर 295 करोड़ लोग हैं, यूट्यूब के 270 करोड़ ग्राहक हैं। तो ये हैं दुनिया के सबसे बड़े देश और विश्व के सबसे बड़े मीडिया हाउस। इनकी पहुँच इतनी व्यापक है कि जब कुछ वर्षों पहले म्यांमार में एक फेसबुक पोस्ट के चलते उद्वेलित भीड़ ने कई सौ रोहिंग्याओं का नरसंहार कर दिया तब फेसबुक को तलब किया गया। जवाब में फेसबुक ने साबित कर दिया कि इसमें उसका कोई दोष नहीं है। हुआ बस ये कि म्यांमार के फेसबुक पर कोई सेल्फी, तो कोई गाना, तो कोई खाना, तो कोई उन्मादी पोस्ट डाल रहा था। फेसबुक के AI ने देखा कि उन्मादी पोस्ट ज्यादा लोग देखते हैं, तो एल्गोरिथम ने उसी पोस्ट को ज्यादा ज्यादा लोगों के टाइमलाइन पर दिखाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते एक गलत चीज वायरल हो गई और सैकड़ों लोग मर गए। ऐसा कैसे हुआ? ऐसा हुआ क्योंकि AI के लिए दर्शक जुड़ाव ही एकमात्र मापदंड है, खबर के सत्यापन या गुणवत्ता की जांच करना AI का काम नहीं। ताजातरीन उदाहरण में दुनिया ने देखा कि अमेरिकी चुनाव में वाशिंगटन पोस्ट से लेकर लॉस एंजिलिस टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई और एलोन मस्क के ट्विटर पर कुछ सौ लोगों के हैशटैग को AI ने इतना अधिक प्रचारित कर दिया कि जनता ने किसी और को ही जिता दिया। ये सब तो समस्या हुई। इसका समाधान क्या हो? ऐसा नहीं है कि AI से सिर्फ विध्वंसात्मक काम ही होते हैं। पिछले महीने ही भारत पुरुष एवं महिला दोनों में विश्व शतरंज चैंपियन बन गया। अचानक भारत शतरंज में कैसे इतने सारे विश्व चैंपियन तैयार कर रहा है? क्योंकि लॉकडाउन के दौरान, घर पर रहने के कारण हजारों युवाओं ने AI के साथ ऑनलाइन शतरंज खेला और अपने खेल में आश्चर्यजनक सुधार कर लिया। तो फिलहाल, जबतक AI को मानव सभ्यता ठीक ठाक समझ नहीं लेती, तब तक दुनियाभर की सरकारों को तुरंत नकली मुद्रा की तरह, और जैसे बन्दूक रखना वर्जित है, वैसे ही इंसान के भेष में AI बॉट्स पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। भले BOTS रहें, जैसे बच्चों के खेलने के नोट, या दिवाली में खिलौना बन्दूक जैसे, पर BOTS मनुष्य बनकर मनुष्यों के साथ व्यवहार न करें। जैसे ही हमको हमारे फोन की स्क्रीन पर आनेवाले कंटेंट के साथ ये मालूम पड़ जाने लगेगा कि फलां विषयवस्तु कृत्रिम बुद्धि AI द्वारा प्रेषित है और फलां विषयवस्तु मानव निर्मित है, मनुष्य में निहित विवेक सही गलत को छान लेगा और सही सूचना पर प्रतिक्रिया और गलत सूचना पर उदासीनता की नैसर्गिक क्रिया होने लगेगी।