– मौतें कारोनों से नहीं सिस्टम की संडाध से हो रही है। अगर अभी भी किसी की जवाबदेही तय नहीं हुई तो हत्या की सजा काट रहे कातिलों को भी रिहा कर दीजिए
मौत तो मौत होती है। उसकी वजह चाहे कुछ भी हो। पिछले एक माह से कोरोना के नाम पर देश में लाशों का बाजार रोज अस्पताल के अंदर- बाहर चीखते- चिल्लाने की शक्ल में नजर आ रहा है। मजाल किसी का दिल पसीजा हो। अगर इस देश को चलाने वाले नेता, अधिकारी और जिंदगी बचाने वाले डॉक्टरों में मानवता- इंसानियत कूट कूट कर भरी होती तो आज बहुत सी जिंदगियां आक्सीजन- वेंटीलेटर की कमी से नहीं जाती। यह इनके लिए एक बाजार है जहां सिर्फ लाशों की बोलियां लगती है। पहले चीलों का झूंड आसमान में मंडराते हुए जमीन पर पड़ी लाशों को साफ कर देता था। अब इन चीलों का जिम्मा हमारे सिस्टम ने लिया है। देश की अदालतें बेशक चिल्लाकर कहे कि हम आक्सीजन रोकने वालों को फांसी पर लटका देंगे। चुनाव आयोग लोकतंत्र को बचाए रखने का ढिंढोरा पीटे। कुछ नहीं है। मीडिया वाले इसे डॉयलाग समझकर कुछ दिनों तक अपनी टीआरपी बढ़ाते हैं। यह भी अलग किस्म का बाजार है। दरअसल कोरोना वायरस बनकर पूरे विश्व को उसकी हैसियत बताने आया था। जिसमें वह कामयाब भी रहा। इंसान की फिदरत देखिए। उसने इस वायरस से सबक लेने क बजाय उसे बाजार में ही तब्दील कर दिया। जो देखो कोरोना के नाम पर लूटने लगा है। ऐसा लगता है कि इंसान ओर सिस्टम का असली चरित्र ही अब सामने आया है। पता नहीं हमारे पीएम मोदी साहब चारों तरफ नजर आ रही लाशों को देखकर विचलित है या 2 मई को आने वाले पश्चिम बंगाल के रजल्ट को लेकर गंभीर । 2013 में मोदी जी ने कहा अच्छे दिन आएंगे, हम झूम उठे। अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला रखी तो हमने एक सूर में जय श्रीराम के नारों से धरती को आसमान में उठा लिया। आपने कहां काला धन आएगा। हम बन ठनकर इतराने लगे। आपने कहां नोटबंदी से भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर देंगे। हम रोज धुले हुए कपड़े पहनने लगे। आपने कहा चीन- पाक को उसकी औकात बता देंगे। हम मां का आशीर्वाद लेकर खुद मे जोश भरने लगे। आपने जब जब मन की बात की। हमने उसे माता- पिता से बढ़कर मानी। मोदी है तो मुमकिन का नारा हमारी नसों में दौड़ने लगा था। आपके पांच साल कब गुजर गए पता नहीं चला। हमने दुबारा डबल पॉवर के साथ आप पर भरोसा जताया। हमें किसी सूरत में आपकी बुराई बर्दास्त नहीं थी। 24 मार्च 2020 में आपने कहा कोरोना को भगाना है लॉकडाउन लगाना है। पूरा देश आपके इशारों में थालियां- तालियां बजाता रहा। हालात बिगड़ने लगे तो हमने सारा ठीकरा कोरोना पर फोड़ दिया ताकि इमेज को धक्का नहीं लगे। जीवन में कभी 50-70 रुपए किलो आलू खरीद कर नहीं खाए। हम चुपचाप झेल गए। पेट्रोल- डीजल हमारी औकात बता रहा था। फिर भी कुछ नहीं कहा। इसी उम्मीद से अच्छे दिन आएंगे। सबकुछ बर्दास्त करते चले गए। पिछले एक माह में आक्सीजन सिलेंडर- वेंटीलेटर की कमी से हंसता खेलता इंसान लाश बनने लगा तो मन चित्कार कर उठा। उस समय आप पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनाव में बिजी थे। हम सिर्फ आपसे इतना ही पूछना चाहते हैं अच्छे दिन का असली परिभाषा क्या हैं। सात साल हो गए। अगर यहीं अच्छे दिन हैं हमें माफ करना हमसे गलती हो गईं……।