तुषार अपने संघर्ष को तारीफों के बाजार में मत बिकने देना…. वह निगल जाएगा
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
हरियाणा के रेवाड़ी शहर की सती कालोनी में 27 साल के तुषार सैनी से मिलने के लिए अब उसके घर का पता पूछने की जरूरत नहीं है। यूपीएससी रजल्ट से पहले जरूर जवाब मिल जाता कौन तुषार सैनी..। अच्छा बृजभूषण हलवाई का लड़का। पता नहीं घर में रहता है या कहीं ओर..। बृजभूषण तो कोविड में अटैक की मार में चल बसा था। पत्नी कमलेश को 2016 में कैंसर बीमारी ने मार दिया था। उसका भाई राहुल किसी कपड़े की दुकान में काम करता है। ऊपरवाला किसी के साथ ऐसा ना करें।
अब यही समाज, यहीं लोग इसी तुषार को अपने आस पास देखकर इतरा रहे हैं लड़का हो तो ऐसा। दरअसल समाज की मानसिकता को समझने के लिए हमें 1913 में गुरु रविंद्र नाथ टैगोर की अंग्रेजी में लिखे कविता संग्रह गीतांजलि को मिले एशिया के सबसे बड़े सम्मान नोबेल पुरस्कार की छोटी सी कहानी को पढ़ना होगा। गुरुदेव जब मौजूदा हालात को कविता के शब्दों में उतार रहे थे उस समय वे बेहद आर्थिक चुनौतियों से भी लड़ रहे थे। उनकी रचनाओं को समझने, पढ़ने वाले ना के बराबर थे। वे करते तो क्या करते। संयोगवश एक अंग्रेज मित्र ने उनकी रचनाओं को पढ़ा तो दंग रह गया। उसने ब्रिटेन जाकर समझदार मित्रों से चर्चा की। गुरुदेव से पत्राचार शुरू हुआ। उन्हें ब्रिटेन बुलाया गया। वहां जाकर गुरुदेव ने अंग्रेजी भाषा में गीतांजलि को काव्य संग्रह का स्वरूप दिया। यह पुस्तक अंग्रेजी बिरादरी में धूम मचाने लगी। भारत में भी चुनिंदा पढ़े लिखे समझदारों ने पढ़ा। अंग्रेज मित्रों ने इस पुस्तक को नोबेल अवार्ड के लिए भेज दिया। गुरुदेव वापस अपने आश्रम में आकर रूटीन के संघर्ष में लौट गए। कुछ समय बाद एक सूचना पूरे विश्व में खलबली मचा देती है कि गुलाम भारत में एक साहित्यकार की पुस्तक गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। यह खबर देश में आग की तरह फैल जाती है। कोने कोने से लोग गुरुदेव को बधाई देने के लिए आश्रम पहुंचना शुरू हो जाते हैं। आधे से ज्यादा को यह नहीं पता कि नोबेल अवार्ड क्या होता है और गीतांजलि में ऐसा क्या लिखा है कि अंग्रेजी हुकुमत भी एक भारतीय की मुरीद हो गईं। वजह भी सही थी बधाई देने वालों में 90 प्रतिशत को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं था। बस वे इतना जानते थे कि गुरुदेव ने भारत में ही नहीं एशिया स्तर पर अंग्रेजो की अकड़ ठीक कर दी है कि भारतीय उनसे ज्यादा दिमाग रखते हैँ। रोज हजारों की संख्या में आ रहे लोगों को देखकर गुरुदेव बेहद विचलित हो गए और परेशान होकर ब्रिटेन चले गए। वहां से उन्होंने एक पत्र लिखा जिसमें अपना दर्द बयां करते कहा कि इस सम्मान के लिए जितने भी मेरे भारतीयों ने बधाई दी। उसमें अधिकांश ने मेरी पुस्तक को पढ़ना तो दूर यहां तक की देखा तक नहीं। ऐसा लग रहा है कि वे सम्मान को सम्मान दे रहे हैं रविंद्र नाथ टगौर को नहीं। जब मुझे उनकी जरूरत थी वे आस पास भी नहीं थे। इसलिए ऐसी बधाईयों से घबराकर कुछ समय के लिए लंदन आना पड़ा ताकि शांत चित मन से अपने देश के लिए बेहतर सोच पाऊ कर पाऊ..। तुषार जैसे अनेक युवा यूपीएससी रजल्ट के बाद इसी तरह की तारीफों के बाजार में घिरे रहेंगे। शुक्र है तुषार सरकारी स्कूल में पढ़ा। नहीं तो प्राइवेट स्कूल वाले अभी तक उसके सघर्ष की बोली लगा चुके होते। धन्यवाद करिए उन गुरुजनों का जिसने तुषार की दसवीं एवं 12 वीं की परीक्षा में 70 प्रतिशत से ज्यादा अंक नहीं दिए। अगर 100 में से 100 नंबर आ जाते इस युवा में संघर्ष की जगह बिना मतलब का गरूर कब्जा घर कर लेता। कोचिंग सेंटर संचालकों का भी आभार जिसने तुषार की हैसियत देखकर उसे ज्यादा महत्व नहीं दिया। इसलिए रणघोष की तुषार से अपील है कि वह तारीफों के इस बाजार में खुद को मजबूती से खड़ा रखे नहीं तो यह अलग अलग चेहरे में आकर निगल जाएगा। तुषार उन तमाम युवाओं की उम्मीद है जिन्होंने विपरित हालातों में सपने देखने छोड़ दिए थे।