सामयिक लेख: सहयोग का लंगर…..आंदोलन में ‘उत्सव’ जैसा रसास्वादन, पिज्जा-बर्गर, चाय-कॉफी सब हाजिर

 रणघोष खास. सुशील कुमार’नवीन’


खाने को पिज्जा, लच्छा परांठा, तंदूरी नान,तवा नान, चिल्ला, डोसा वो सब हैं। जो मसालेदार खाने वालों को चाहिए। देसी चटखारे के लिए मक्के की रोटी, सरसों का साग, दाल तड़का, कढ़ी,चावल, राजमा जितना चाहो उतना छक लो। मीठे में देसी घी का हलवा, गर्म जलेबी, लड्डू, बूंदी तो हैं ही। हरियाणवीं तड़का लिए बाजरे की रोटी, अलुणी घी, लाल मिर्च की चटनी लंगर के प्रसादे को और चार चांद लगा रही हैं।

     लस्सी-दूध भरे बड़े-बड़े ड्रम नजदीकी गांवों से बिना कहे पहुंच रहे हैं। सुबह उठते ही गर्म चाय तैयार मिल रही है। पीने को पानी की पैक्ड बोतल हर वक्त उपलब्ध है। इम्युनिटी बढ़ोतरी के लिए बादाम का काढ़ा बनाया जा रहा है। बिछाने के लिए गद्दे, ओढ़ने के लिए रजाई, गर्म मोटे कम्बल। मिनी थियेटर तक साथ लिए हैं। मनोरंजन के लिए रोज पंजाबी-हरियाणवीं कलाकार बिन बुलाए पहुंच रहे है। यूँ लग ही नहीं रहा कि किसान दिल्ली बार्डर पर आंदोलन पर हैं। इन्हें देखकर तो यही लगता है मानो किसी बड़े उत्सव का आयोजन यहां हो रहा है।

   आंदोलन जारी हुए दो हफ्ते होने को है। आमतौर पर ज्यों-ज्यों आंदोलन लंबा खींचता जाता है। उसके बिखराव की संभावनाएं और अधिक होती चली जाती हैं। आंदोलनकारियों के हौंसले तक जवाब देने लग जाते हैं। भीड़ लाखों से हजारों, हजारों से सैंकड़ों में पहुंच जाती है। पर यहां मामला इतिहास के सामने नया उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहा है।

  सेवा भाव में सिखों का कोई सानी नहीं है। लंगर क्या होता है, इसकी सही परिभाषा यही बता सकते हैं। सेवा में वैरायटी की इनके पास भरमार है। हम प्रायः देखते है जब भी कोई इनकी धार्मिक यात्रा का जिस भी शहर या बड़े गांव में आगमन होता है तो वहां के स्थानीय धर्मप्रेमियों की सेवाभाव अतुलनीय होती है। मीठे पानी की छबील, हलवा, छोले-पुरी तक ही ये सीमित नहीं होते। हर छोटी से बड़ी चीज सेवाभावियों द्वारा उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है। खास बात सेवा करने वाले भी कोई साधारण नहीं होते हैं। बड़े-बड़े अफसरों,खिलाड़ियों, सिने कलाकारों, राजनेताओं को देखा जा सकता है।

     यही भाव किसान आंदोलन की जड़ें जमाये हुए है। इसे और अधिक मजबूती हरियाणा वालों का ‘सहयोग का लंगर’ प्रदान कर रहा है। हरियाणा की तरफ से आने वाले हर वाहन में आटे की बोरियां, सब्जी, दाल, दूध, लस्सी इतना अधिक मात्रा में पहुंच रहा है। दिल्ली आंदोलन में भागीदारी निभा रही अंतरराष्ट्रीय योगा एथलीट कविता आर्य के अनुसार वहां किसी चीज की कमी नहीं है। लस्सी-दूध के टैंकर अपने आप पहुंच रहे है। किसी ने जलेबी का लंगर चला रखा है तो किसी ने लड्डू-बर्फी का। कोई गन्ने का जूस पिला रहा है तो कोई किन्नू, गाजर का मिक्स जूस। साबुन, तेल जो चाहिए, सेवा भाव में हाजिर है। मच्छर आदि न काटे, इसके लिए कछुआ छाप, गुड नाइट आदि क्वाइल यहां तक ओडोमास क्रीम तक मिल जाएगी।

सोशल एक्टिविस्ट सुशील वर्मा बताते हैं कि यहां लगता ही नही कि कोई आंदोलन चल रहा है। मैनेजमेंट गजब का है। देशी के साथ विदेशी फीलिंग यहां महसूस की जा सकती है। पैक्ड बोतल में पानी चाहिए तो वो भी मिल जाएगा। पिज्जा, बर्गर सब तैयार मिलते हैं। काय-कॉफी की कोई कमी नहीं। स्नेक्स भी अलग-अलग प्रकार के। बिस्किटस की दुनियाभर की वैरायटी। आंदोलन भले ही रोड पर चल रहा हो, पर बंदों ने अपने जीवन शैली को अपने ही स्टाइल में बरकरार रखा हुआ है। ट्रेक्टर ट्रालियां रेन बसेरों का रूप लिए हैं। कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन हैं। रजाई-गद्दों की कोई कमी नहीं। सेवा करने वाले कुछ पूछते नहीं, अपने आप काम लग जाते हैं। कोई किसी को काम की नहीं बोल रहा। सब के सब भोर होते ही ड्यूटी सम्भाल लेते हैं। आंदोलन कब खत्म होगा इसका किसी को पता नहीं। बस जम गए तो जम गए। एक ही आवाज खाली हाथ नहीं लौटेंगे।

(नोट:लेख ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर है।इसे कोई व्यक्तिगत रूप में न लें।)


 

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