इसमें कोई शक नहीं पूंजीपतियों की लार भारतीय खेती पर टपक रही है

रणघोष खास. देशभर से


पूरी दुनिया में कुछ बड़ी कंपनियां तय कर रही हैं कि कौन सी फसल उगाई जाएगी, कैसे उगाई जाएगी, उसमें क्या क्या पड़ेगा, और उसे कौन बेचेगा। इसका मतलब होगा ढेर सारे रसायनों से  परिष्कृत फसल, विशाल मोनोपॉली वाली सुपरमार्केट श्रृंखला में उनकी बिक्री और औद्योगिक स्तर पर खेती। खाद्य सामग्री के वितरण पर कई देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो गया है। स्थानीय खाद्य सामग्री की जगह केंद्रीकृत तरीके से तय की हुई एक ही प्रकार की खाद्य सामग्री से बाज़ार पट जाता है। खरीदारों के पास कोई विकल्प बचता नहीं।मेक्सिको के उदाहरण से वे समझाते हैं कि इसका कितना प्रतिकूल असर स्वास्थ्य पर पड़ता है। मेक्सिको में खेती को बड़ी कंपनियों के लिए खोल देने के बाद 1988 से 2012 के बीच 20 से 49 वर्ष के बीच की औरतों में मोटापे का प्रतिशत 9 से 37 तक बढ़ गया। 5 से 11 वर्ष के बीच के बच्चों में अपनी उम्र के हिसाब से अधिक वजनवाले बच्चों का प्रतिशत बढ़कर 29 हो गया जबकि 11 से 19 के बीच की उम्र के बच्चों के लिए यह प्रतिशत 19 तक हो गया। बड़ी कंपनियां लंबे वक्त तक खाद्य सामग्री को टिकाए रखने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा रसायनों का इस्तेमाल करती है। इससे छोटे व्यवसायी तबाह हो गए क्योंकि स्थानीय स्तर पर उगाई गई फसल और जल्दी खराब हो जानेवाली खाद्य सामग्री के लिए जगह ही नहीं रह गई।मेक्सिको के कृषि क्षेत्र पर जल्दी ही अमेरिकी कंपनियों का क़ब्जा हो गया। उन्होंने पारंपरिक वितरण व्यवस्था को नष्ट कर दिया और अपेक्षाकृत सस्ती कीमत पर वैसी खाद्य सामग्री फैला दी, जिसमें पोषण के तत्व न के बराबर थे। इसने पूरी आबादी की सेहत पर बहुत बुरा असर डाला।मेक्सिको भारत के लिए चेतावनी है। अमरीकी कंपनियाँ मेक्सिको की खेती और कृषि उत्पाद के बाज़ार पर क़ब्जा कर पायें, इसके लिए अमेरिकी सरकार ने उनको भारी आर्थिक मदद दी।ये सब भारत में भारी निवेश कर रहे हैं। फ़ेसबुक ने 500 करोड़ डॉलर से अधिक अंबानी के जियो प्लैटफ़ॉर्म में लगाए हैं। गूगल ने 400 करोड़ डॉलर से अधिक। भारत में जो ई- कॉमर्स जाल है, उसके 60% हिस्से पर अमेज़न और फ्लिपकार्ट का क़ब्जा है। अब हम समझ सकते हैं कि क्यों बड़े बड़े अर्थशास्त्री और मीडिया घराने कृषि संबंधी इन तीन क़ानूनों की तारीफ के कसीदे काढ़ रहे हैं। क्यों वे झुँझला रहे हैं कि सरकार ने मामले को अक्लमंदी से नहीं संभाला। क्यों डेमोक्रेट सरकार भी सरकार को सिर्फ यह सलाह दे रही है कि वह जनतांत्रिक दीखे लेकिन साथ ही उसके क़ानूनों की हिमायत कर रही है।लेकिन हमारी समझ में यह भी आना ही चाहिए कि क्यों फ़ेसबुक और वॉट्सऐप सरकार की हिमायत में घृणा का पर्यावरण बना रहे हैं। क्योंकि इस पर्यावरण से किसानों पर सरकारी हिंसा को लोकप्रिय समर्थन मिल सकेगा। इनके माध्यम से यह प्रचार किया जा रहा है कि बेचारी सरकार खेती-किसानी को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही है और उसके आलोचक उसके पाँव खींच रहे हैं। जनता को बताया जा रहा है कि जितनी बड़ी कंपनी होगी, उसे सामान उतना सस्ता मिलेगा। दुनिया के सबसे बड़े मुनाफ़ाखोर इस वक़्त भारत को ध्यान से देख रहे हैं। भारत में अगर किसानों का आन्दोलन कामयाब होता है तो दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी इन कॉरपोरेट घरानों को भी पीछे धकेला जा सकेगा। किसानों के इस आंदोलन की सफलता का लाभ सिर्फ भारत के किसानों को नहीं, उसकी औरतों, बच्चों को मिलेगा और सारी आबादी को इस रूप में कि उसे वह नहीं झेलना पड़ेगा जो मेक्सिको की जनता ने झेला है। क्या पूंजीपतियों के प्रति वफादारी साबित करने के लिए  सरकारी ताकत और हिंसा का सामना करने किसानों को  क्या अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए?

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