मां लक्ष्मी मुख्य अतिथि, सरस्वती ताली बजाती है, यह कैसी राम की लीला
रणघोष खास. सुभाष चौधरी
इन दिनों चारों तरफ धार्मिक आयोजनों की सुगंध फैली हुई है। दिन में सत्संग की बयार तो रात को राम की लीला का मंचन सभी को बेहतर इंसान बनने ओर बनाने का अहसास करा रहा है। सदियों से ऐसा करते आ रहे है ओर आगे भी यह निरंतर जारी रहेगा। हम सभी धर्म के प्रति आस्था को अपनी मानसिकता से, चली आ रही परपंरा ओर मौजूदा हालात के हिसाब से स्वरूप देते आ रहे हैं। धर्म के नाम पर जितने भी आयोजन हो रहे हैं उसमें अर्थ सबसे आगे आकर अन्य सभी की भूमिका तय करके चला जाता है। सोचिए विचारिए मंथन करिए। समाज के किसी भी आयोजन में मुख्य अतिथि कौन बनता है। जाहिर है जो सबसे ज्यादा अर्थ का दान करता है। ऐसा करना गलत भी नहीं है। बिना अर्थ के आयोजन संभव नहीं है। यहां बस एक सवाल बैचेन कर रहा है क्या मां लक्ष्मी मुख्य अतिथि बनाती है ओर सरस्वती ताली बजाती है। जिसके पास अर्थ का बल है व आयोजन में खास बन जाता है जिसके पास अराधना- भक्ति- भाव व ज्ञान का भंडार है वह अर्थ के लिए ताली बजाता है। समझ में नहीं आ रहा अर्थ ज्ञान के सागर में तैर रहा है या ज्ञान का सागर अर्थ में अपना अस्तित्व देख रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं की अर्थ भी कई रास्तों से होकर आता है। कुछ आयोजनों में मुख्य अतिथि ऐसे चेहरे भी होते हैं जिसकी पारिवारिक ओर सामाजिक पृष्ठभूमि अनैतिक- मूल्यहीन होते हुए आयोजन में अर्थ की माया से प्रतिष्ठा में सराबोर हो जाती है। सत्संग में चल रहे भजन के बीच अचानक दानवीरों के नाम का एलान होता है ओर एकाएक भक्ति का भाव छिटक कर दान दाताओं की गोद में जा बैठता है। कथा वाचकों व उनके साथ आई मंडली के लिए पंडाल में अर्थदाता ही विशेष भक्त क्यों नजर आते हैं। इस भाव में छिपे यथार्थ को समझना जरूरी है। ऐसा क्यों महसूस कराया जा रहा है कि धार्मिक आयोजन अब बाजार में खुली दुकानों में रखे सामानों की तरह अपना मोल तोल कर रहे हैं। जिस अर्थ को भाव के पीछे छिपे व अदृश्य होना चाहिए वह अब इन आयोजनों में अपना सार्वजनिक शक्तिप्रदर्शन कर उस मूल भाव निगल रहा है जिसकी वजह से वह जन्मा है।