कृषि क़ानूनों पर छूट राज्यों को क्यों नहीं देता केंद्र?

किसानों का चक्का-जाम बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया और उसमें 26 जनवरी- जैसी कोई घटना नहीं घटी, यह बहुत ही सराहनीय है। उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने जिस अनुशासन और मर्यादा का पालन किया है, उससे यह भी सिद्ध होता है कि 26 जनवरी को हुई लालक़िला- जैसी घटना के लिए किसान लोग नहीं, बल्कि कुछ उदंड और अराष्ट्रीय तत्व ज़िम्मेदार हैं। जहाँ तक वर्तमान किसान-आंदोलन का सवाल है, यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें तीन बड़े परिवर्तन हो गए हैं। एक तो यह कि यह किसान आंदोलन अब पंजाब और हरियाणा के हाथ से फिसलकर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जाट नेताओं के हाथ में आ गया है। राकेश टिकैत के आँसुओं ने अपना सिक्का जमा दिया है। दूसरा, इस चक्का-जाम का असर दिल्ली के बाहर नाम-मात्र का हुआ है। भारत का आदमी इस आंदोलन के प्रति तटस्थ तो है ही, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के अलावा भारत के सामान्य और छोटे किसानों के बीच यह अभी तक नहीं फैला है।तीसरा, इस किसान आंदोलन में अब राजनीति पूरी तरह से पसर गई है। चक्का जाम में तो कई छुट-पुट विपक्षी नेता खुले-आम शामिल हुए हैं और दिल्ली के अलावा जहाँ भी प्रदर्शन आदि हुए हैं, वे विपक्षी दलों द्वारा प्रायोजित हुए हैं। हमारे अधमरे विपक्षी दलों को अपनी कुंद बंदूक़ों के लिए किसानों के कंधे मुफ्त में मिल गए हैं। किसानों के पक्ष में जो भाषण संसद में और टीवी पर सुने गए या अख़बारों में पढ़े गए, उनसे यह मालूम नहीं पड़ता कि उनके तर्क क्या हैं? वे अपनी बात तर्कसम्मत ढंग से अभी तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। दूसरे शब्दों में आजकल सरकार और किसानों की यह फर्जी मुठभेड़ चलती चली जा रही है। यदि इसमें कोई बड़ी हिंसा और प्रतिहिंसा हो गई तो देश का बहुत गहरा नुक़सान हो जाएगा। इस फर्जी मुठभेड़ को रोकने का सबसे आसान तरीक़ा मैं कई बार सुझा चुका हूँ। केंद्र सरकार इन क़ानूनों को मानने या न मानने की छूट राज्यों को क्यों नहीं दे देती? पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मालदार किसानों की माँग पूरी हो जाएगी। उनके लिए तो ये तीनों क़ानून ख़त्म हो जाएँगे। वे किसानों के लिए बने हैं या गुजराती धन्ना-सेठों के लिए, इसका पता अगले दो-तीन साल में अन्य राज्यों से मिल जाएगा।

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