कोरोना: अस्पतालों में ऐसी नौबत कि किसे बचाएँ और किसे छोड़ दें?

किसे बचाएँ और किसे मरने के लिए छोड़ दें? कोरोना संकट ने अस्पतालों में डॉक्टरों के सामने ऐसी नैतिक दुविधा पैदा कर दी है। ये हालात कई जगहों पर हैं। मरीज़ों के लिए आईसीयू बेड, वेंटिलेटर कम पड़ने पर ऐसी स्थिति आन पड़ती है। पिछले साल जब मार्च-अप्रैल में कोरोना पहली बार फैल रहा था तो कुछ यूरोपीय देशों, ख़ासकर इटली में ये हालात बने थे। ऐसे हालात अब भारत के कर्नाटक राज्य में बनने की ख़बर आई है। जब कोरोना की पहली लहर आई थी तो अस्पताल बेड, आईसीयू, वेंटिलेटर कम पड़ने की ख़बरें आई थीं। डॉक्टर और नर्सों की भी कमी की रिपोर्टें आई थीं। लेकिन तब संक्रमण कम होने लगने पर हालात काबू में आ गए थे। अब कोरोना की दूसरी लहर काफ़ी तेज़ है। पिछली बार से कहीं ज़्यादा अस्पताल के संसाधन कम पड़ गए हैं। हालात कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हैं। अस्पताल बेड नहीं मिलने और ऑक्सीज़न की कमी से कोरोना मरीज़ों की मौत की ख़बरें इस भयावहता की पुष्टि करती हैं। आपने वह ख़बर तो पढ़ी या सुनी ही होगी जिसमें  महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले के एक 85 साल के बुजुर्ग नारायण भाऊराव दाभाडकर ने यह कहते हुए एक युवक के लिए अपना बेड खाली कर दिया कि मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी जी ली है, लेकिन उस व्यक्ति के पीछे पूरा परिवार है, उसके बच्चे अनाथ हो जाएँगे। अस्तपाल का बेड छोड़ने के बाद नारायण राव घर चले गए थे और तीन दिन में ही उनकी मौत हो गई थी। वह कोरोना संक्रमित थे और उनका ऑक्सीजन लेवल घटकर 60 तक पहुँच गया था। लंबी जद्दोजहद के बाद नारायण राव को अस्पताल में बेड मिल गया था।गंभीर स्थिति में पहुँच गए मरीज़ों के लिए आईसीयू और वेंटिलेटर ज़िंदगी बचाने में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन अस्पतालों में संसाधन कम पड़ने के कारण डॉक्टरों को बेड के आवंटन को लेकर एक नैतिक दुविधा का सामना करना पड़ रहा है। ताज़ा मामला कर्नाटक में डॉक्टरों के सामने ऐसी नैतिक दुविधा का है। मौजूदा समय में कर्नाटक देश में सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्यों में से एक है। यहाँ हर रोज़ 40 हज़ार से 50 हज़ार संक्रमण के मामले आ रहे हैं। आज भी राज्य में क़रीब 40 हज़ार संक्रमण के मामले आए हैं और साढ़े चार सौ लोगों की मौत हुई है। राज्य में सक्रिए मामले 5 लाख 87 हज़ार से ज़्यादा हो गए हैं। ऐसे ही हालात में अस्पताल में आईसीयू बेड और वेंटिलेटर की कमी है। अस्पतालों और डॉक्टरों के सामने नैतिक दुविधा के सवाल खड़े हो रहे हैं। किसे बचाया जाए? बुजुर्ग को या युवा को? ज़्यादा गंभीर मरीज़ को या फिर घर में एकमात्र कमाऊ व्यक्ति को?नाम नहीं बताने की शर्त पर एक डॉक्टर ने कहा, ‘आईसीयू में भर्ती के लिए रोगी की स्थिति के अलावा उम्र एक मानदंड बन गई है। ऐसा नहीं है कि हम बुजुर्ग रोगियों के लिए सीधे इलाज से इनकार कर रहे हैं, लेकिन हम बीमारी के गंभीर रूपों से पीड़ित युवा रोगियों के परिवारों के लिए ज़्यादा दुख महसूस करते हैं।’वैसे, किस मरीज़ को बचाया जाए और किस मरीज़ को छोड़ा जाए, ऐसी स्थिति कोरोना के संकट काल में कई देशों में आई है। सबसे पहले इटली से ऐसी ख़बरें आई थीं कि अस्पताल की सुविधा कम पड़ने पर वहाँ बुजुर्ग मरीज़ों की अपेक्षा युवा मरीज़ों को तरजीह दी जा रही थी।

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