डंके की चोट पर ;जिसने दहेज नहीं लिया वह अहसान से मारता है

– जिसे नहीं मिला वह जीते जी, हमें माफ करना बेटी


अगर सच में दहेज को खत्म करना चाहते हैं तो शादी के नाम पर शक्तिप्रदर्शन बंद करिए। झूठी वाही वाही  के लिए दोनों तरफ से अनाप शनाप खर्च को रोकिए। इस राशि का उपयोग समाज में ऐसे जरूरतमंद परिवारों पर करिए जहां इंसानियत. मानवता आपका इंतजार कर रही है। यहीं मानसिकता ही दानव बने दहेज का अंत करेगी।


रणघोष खास. प्रदीप हरीश नारायण

शादी के सीजन में दहेज ऐसे बिकता है जैसे सब्जी मंडी में सब्जियां। मीडिया में दहेज की खबरें अलग अलग अंदाज में नजर आ रही हैं। एक तरफ दहेज मांगने वाले शैतान. हैवान की तरह दिखाए जा रहे हैं दूसरी तरह बिना दहेज की शादियां सीता. राम जोड़ी की तरह गर्व कराती नजर आ रही हैं। कड़वे. मीठे का अहसास कराते ये घटनाक्रम अपने पीछे कई तरह के सवाल छोड़कर जा रहे हैं। सोचिए ठीक फेरो के समय ही बात क्यों बिगड़ती है। क्या दोनों पक्ष समाज में अपनी बदनामी करवाने के लिए इसी दिन का शुभ मुहर्त निकलवाते हैं। रिश्ता तय होने के बाद से शादी होने से पहले तक लड़का. लड़की को आपस में अपनी मन की बात करने की पूरी इजाजत मिल जाती है। दोनों पक्ष सुबह शाम तैयारियों को लेकर जमकर चर्चा करते हैं। ऐसा क्या हो जाता है कि बारात दुल्हन की दहलीज पर आने के बाद दहेज के चलते कोर्ट कचहरी पहुंच जाती है। एक दूसरे के खिलाफ अचानक नफरत का जहर जुबान से उगलने लगता है।  दहेज की लार फेरो के समय ही क्यों टपकती हैं।  इस पहलु में छिपे सच को समझना इसलिए जरूरी हो गया है कि इसकी बहुत बड़ी कीमत दोनों पक्षों के परिजनए रिश्तेदार या बिचौलिए को नहीं असल में पति. पत्नी की रिश्तों में बंधने वाले दो युवाओं को जिंदगी भर चुकानी पड़ती है।

 दूसरी तरफ बिना दहेज की शादी को लेकर बन रही खबरों पर गौर करिए। ऐसा लगता है कि दुल्हे के परिजनों ने शादी में कुछ भी नहीं लेकर दुल्हन खासतौर से उसके परिवार पर ऐसा अहसान कर दिया हैं कि वे ताउम्र नजरें झुकाएं इसे चुकाते रहेंगे। क्या बिना दहेज की शादियां सादगी के साथ हो रही है। दहेज के नाम पर लेन. देन नहीं किया। अच्छी बात है। इसे छोड़कर शादी की भव्यता शक्ति प्रदर्शन व आवभगत पर जो लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए क्यां उसका खर्चा लड़की के परिजनों ने नहीं उठाया होगा। क्या शादी के बाद त्यौहार संतान जन्मोत्सव पर वधु पक्ष की तरफ से अनावश्यक खर्च करने की परपंरा में ठहराव आया है। सबसे बड़ी बात माता.पिता अपनी बेटी को काबिल बनाने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं। उसकी बेहतर तालीम पर लाखों रुपए खर्च करते हैं। जब वह अपने पैरो पर खड़ी हो जाती हैं। उसकी शादी के लिए उनका नया संघर्ष शुरू हो जाता है। काबिल बेटी के प्रोफाइल के हिसाब से समाज में लड़का तलाशते हैं। किसी तरह जुड़ाव हो जाता है तो उसी लेवल की शादी करने के लिए खर्च होने वाले बजट का इंतेजाम करने में लग जाते हैं। शादी के बाद घर आई बहू की काबलियत से प्राप्त होने वाली इंकम उनके बैंक बैलेंस का हिस्सा बन जाती है। इसके बाद भी लड़का पक्ष यह दावा करें उसने बिना दहेज शादी की है ओर लोग उस पर तालियां बजाए। वाह वाह करें समझ जाइए समाज का दिवालिया निकल चुका है। सही मायनों में रिश्ता तय करते समय ही दोनों पक्षों की मानसिकता साफ हो जाती  है कि वे इंसान की इंसान से शादी करा रहे हैं या नौकरी की नौकरी से। या फिर घर की संपन्नता व शान शौकत से। अगर रिश्ता करते  समय दोनो पक्ष एक दूसरे के व्यवाहरिक दृष्टिकोण का सम्मान करते रखते है तो समझ लिजिए दो बेहतर परिवार जुड़ रहे हैं। दुर्भाग्य से आज इंसान की इंसान से शादियां बहुत कम नजर आ रही है। यहीं वजह है कि शादी के बाद वहीं घर खिलखिलाते नजर आते हैं जहां इंसान एक दूसरे की काबिलयत आपसी विचारों का सम्मान करते हैं बाकि मकान में तब्दील हो जाते हैं जहां की कंक्रीट की दीवारें रह रही इस इंसानी जमात पर ठहाके मारती नजर आती हैं। अगर सच में दहेज को खत्म करना चाहते हैं तो शादी के नाम पर शक्तिप्रदर्शन बंद करिए। झूठी वाही वाही  के लिए दोनों तरफ से अनाप शनाप खर्च को रोकिए। इस राशि का उपयोग समाज में ऐसे जरूरतमंद परिवारों पर करिए जहां इंसानियत. मानवता आपका इंतजार कर रही है। यहीं मानसिकता ही दानव बने दहेज का अंत करेगी।

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