डंके की चोट पर : बोलने की आजादी अब नए ढंग से पाबंद होने लगी है..

रणघोष खास. देशभर से 

सरकारें अभिव्यक्ति की या दूसरी तरह की आजादी पर हल्ला बोलती हैं, जो कोई नई बात नहीं है। यह जरूर है कि इन दिनों इंटरनेट पर पाबंदी जैसा एक नया आयाम इनमें जुड़ गया है, अन्यथा इसमें कुछ भी नया नहीं है। पिछले कुछ दिनों से रूस में जो हो रहा है और पिछले कुछ समय में हांगकांग और युगांडा वगैरह में जो हुआ है। म्यांमार की घटना तो बिल्कुल ताजा है। ये सारी घटनाएं बताती हैं कि नागरिक आजादी पर पाबंदी का काम अब सरकारें नए ढंग से करने लगी हैं। अब वे सीधे उस माध्यम को रोकती हैं, जिनके जरिए लोग आपस में संवाद करते हैं। लेकिन यह पाबंदी काफी महंगी भी पड़ती है, क्योंकि इंटरनेट सिर्फ खबरों, अभिव्यक्ति और संवाद-संपर्क का जरिया नहीं, बल्कि व्यापार और कारोबार का भी माध्यम है। लोगों को लंबे समय तक चुप कराए रखने की बात तो सोची जा सकती है, लेकिन एक हद के बाद उद्योग-व्यापार को रोकना संभव नहीं होता। इसी पूरे दौर में एक नई चीज जरूर हुई है। सोशल मीडिया चलाने वाली कुछ कंपनियां हैं, जो हमारी अभिव्यक्ति की आजादी की चिंता करती दिखाई देती हैं। पिछले कुछ समय में दुनिया में एक ऐसा बिजनेस मॉडल खड़ा हुआ है, जिसके कारोबारी हित हमारी अभिव्यक्ति की आजादी से चाहे-अनचाहे जुड़ गए हैं। इसके साथ ही यह वही बिजनेस मॉडल है, जिसके हित सनसनी में भी हैं और शायद काफी हद तक नफरत में भी। खबरों में भी हैं और फेक न्यूज में भी। इसमें किसी को अंतर्विरोध भी दिख सकता है और विडंबना भी, हकीकत भी यही है। ये ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें हर देश की सरकार किसी-न-किसी तरह से नियंत्रित करने की फिराक में रहती है, लेकिन वे किसी एक देश के नियंत्रण में नहीं हैं। इसलिए उन्हें पूरी तरह से बंद कर पाना भी संभव नहीं है और शायद इसीलिए कई बार हम उनसे बड़ी उम्मीद भी बांध पाते हैं। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन अक्सर बहुत सी अच्छी चीजें अंतर्विरोधों के बीच ही खड़ी रह पाती हैं। सरकारें भी इस बात को जितनी अच्छी तरह समझ लें, उनका इसी में भला है।

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