दक्षिण हरियाणा की इस असरदार राजनीति कहानी को देखना ना भूले

रामपुरा हाउस.. जिसके इशारे पर जीत गवाह बनती थी..


………..आज खुद के लिए गारंटी मांग रहा है..


Pardeep ji logoरणघोष खास. प्रदीप हरीश नारायण

आइए दक्षिण हरियाणा में ऐसे घर से मुलाकात कराते हैँ  जहां राजनीति संतान की तरह जन्मी । पीढी दर पीढी विरासत के तौर बडी होती गई। कभी जवान तो कभी बुजुर्ग चेहरे में  ठहरती- चलती इधर उधर भटकती हुई आज 20्र24 में 72 साल की हो गईं।…..

बात 1952 की है। स्वतंत्र भारत में पहले चुनाव का एलान हो चुका था। हरियाणा के रेवाड़ी शहर से सटे गांव रामपुरा के घर से सेना में कैपटन पद से नौकरी छोडकर आया एक लड़का इसी शहर से आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में उतर गया। जीत नहीं मिली लेकिन राजनीति के तमाम तौर तरीके सीख गया। इसी साल उसने किसान मजदूर पार्टी नाम से अपनी पार्टी बना ली। 1954  में वह अम्बाला मण्डल से पंजाब विधान परिषद में निर्दलीय सदस्य चुन लिया गया। सरदार प्रताप सिंह कैंरों मंत्रिमंडल में उन्हें परिवहन राजस्व मंत्री का जिम्मा दिया गया। आगे चलकर यह युवा नेता पंजाब से अलग होकर एक नवंबर 1966 में नया राज्य बने हरियाणा में 24 मार्च 1967 को संयुक्त विधायक दल के बल पर दूसरे मुख्यमंत्री बन गए। इस धाकड नेता का नाम राव बीरेंद्र सिंह था। जो स्वतंत्रता सेनानी राव तुलाराम के वंशज थे। इनकी राजनीति धाक उस समय देश प्रदेश की छोटी बडी सरकारों में धमाल मचा रही थी। जिसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की जब  उस समय की देश की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा गांधी को राव बीरेंद्र सिंह का साथ पाने के लिए हवाई चप्पल में ही रामपुरा हाउस आना पड़ा था।  यह समय 23 सितम्बर 1978 का था। राव बीरेंद्र ने इंदिरा गांधी के अनुरोध पर अपनी विशाल हरियाणा पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया।

  राव इंद्रजीत सिंह की राजनीति का आगाज हुआ

उसी समय इसी रामपुरा हाउस से एक ओर राजनीति धुरी का आगाज हो चुका था। बीरेंद्र सिंह के सबसे बडे बेटे राव इंद्रजीत सिंह 1977 में जाटूसाना विधानसभा सीट से विशाल हरियाणा पार्टी से विधायक बनकर पिता की राजनीति विरासत को मजबूत करने के लिए मैदान में आ चुके थे। यह वो समय था जब रामपुरा हाउस से निकली राजनीति हरियाणा से होते हुए देश में पूरी तरह अपना असर डाल चुकी थी। उसी दौरान ही इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी तो बीरेंद्र सिंह उनके मंत्रीमंडल में दूसरे नंबर के सबसे ताकतवर मंत्री के तौर पर राजनीति को अपने मिजाज से चला रहे थे। उनके सामने चुनाव लडने का मतलब तुफान को अपनी हवा से पीछे धकेलना था। समय बदलता गया। बीरेंद्र सिंह की बढती उम्र के साथ राजनीति भी उनके साथ आराम करने लगी थी।1996 के बाद  उनके बेटे राव इंद्रजीत ने 1998 में कांग्रेस की टिकट पर महेंद्रगढ से सांसद बनकर अपने पिता की विरासत को समय रहते पूरी तरह से संभाल लिया था।1999 में कारगिल युद्ध से बने माहौल से देश की राजनीति पूरी तरह से बदल चुकी थी। भाजपा से साधारण परिवार से डाक्टर सुधा यादव ने इंद्रजीत सिंह को हराकर रामपुरा हाउस की सलतनत को हिला दिया। उस समय लगा इस परिवार के खिलाफ एक नई राजनीति का आगाज हो चुका है .. लेकिन 2004 आते ही यह परिवार अपने पुराने वजूद में लौट आया। राव इंद्रजीत ने डाक्टर सुधा को हराकर वापसी की। 2009 में भी सांसद बने।

 यादुवेंद्र सिंह के लिए कोसली की जमीन तैयार हुईं

 इतना ही नहीं उस समय अपने छोटे भाई यादुवेंद्र सिंह के लिए अपनी जाटूसाना सीट जो आज कोसली विधानसभा कहलाती है, को खाली कर दिया। मंझले भाई अजीत सिंह ने भी राजनीति में हाथ अजमाए लेकिन जीत का सेहरा अपने सिर पर नहीं बांध पाए। लेकिन अपने समर्थकों को कुछ सीटों पर जीताने  में अजीत सिंह अपने बडे भाई इंद्रजीत से भी ज्यादा असरदार दिखे लेकिन अलग अलग कारणों से राजनीति अजीत से दूर  होती चली गईं।

 बीरेंद्र सिंह जब तक जीवित रहे रामपुरा हाउस का डंका बजता रहा। उस समय तक हरियाणा के किसी भी मुख्यमंत्री की यह हिम्मत नहीं होती थी वह इस परिवार के खिलाफ जाकर अपनी जमीन तैयार कर सके। कुछ नेता उभर कर भी सामने आए लेकिन ज्यादा समय इस परिवार के सामने टिक नहीं पाए।30 सितमबर 2009 को 89 साल के राव बीरेंद्र सिंह ने दुनिया से विदा ली तो लगा रामपुरा हाउस कही राजनीति बंटवारे में बिखर नहीं जाए।

उनके जाने के बाद राव इंद्रजीत सिंह के कंधो पर राजनीति को संभालने की पूरी जिम्मेदारी आ चुकी थी। अजीत सिंह अपनी अलग राजनीति की तरफ चल पडे थे। यहा तक की वे अपने बडे भाई पर हमला करने में भी पीछे नहीं हटे। उधर बडे भाई का साथ पाकर सबसे छोटे यादुवेंद्र सिंह राजनीति चेहरा नहीं होते हुए भी कोसली से कांग्रेस की टिकट पर विधायक बने तो राव इंद्रजीत सिंह ने दिल्ली की राजनीति में परिवार की जमीन को पूरी तरह से मजबूत करना शुरू कर दिया।

 इसी दौरान हरियाणा में समय के साथ सीएम बदलते रहे लेकिन इस परिवार से उनकी कुंडली बहुत कम मिलती थी। जिसका खामियाजा यहा की जनता ने विकास में भेदभाव के तौर पर लंबे समय तक भुगता। 2013 आते आते देश और प्रदेश की राजनीति के हालात तेजी से बदलते जा रहे थे। कांग्रेस के खिलाफ जनता में माहौल बनता जा रहा था। राव इंद्रजीत सिंह का पहले से ही हरियाणा में कांग्रेस सरकार के मुखिया भूपेंद्र हुडडा से सीधा टकराव चल रहा था। उन्होंने राजनीति नजाकत को समझते हुए बडा फैसला लिया और भाजपा में शामिल हो गए।  उस दिन से ही रामुपरा हाउस राव बीरेंद्र सिंह की सोच से अलग हो चुका था जो आगे चलकर भाईयों में भी आपसी राजनीति टकराव का कारण बना। छोटे भाई यादुवेंद्र सिंह ने कांग्रेस को नही छोडा और अजीत सिंह भी इस हाउस के असली राजनीति उत्तराधिकारी के तौर पर अपने बडे भाई के खिलाफ खुलकर सामने आ गए। यह टकराव लंबे समय तक बना रहा। उधर भाजपा में आने से इंद्रजीत सिंह की अपनी निजी राजनीति सत्ता में भागीदार बनकर मजबूत होती चली गई लेकिन रामपुरा हाउस समय के साथ सिकुड़ता चला गया।

 राव को लगा की भाजपा उनके हिसाब से चलेगी

 इंद्रजीत सिंह को यह भरोसा था कि भाजपा इस इलाके में उसके हिसाब से चलेगी। इसलिए वे अपनी बेटी आरती राव को रेवाड़ी से विधानसभा चुनाव लड़ाने का मन बना चुके थे ताकि वह समय पर उनकी विरासत को संभाल ले। यह सोचना ही उनकी सबसे बडी राजनीतिक भूल थी।  देश प्रदेश में तेजी से मजबूत हो रही भाजपा से  राव का अपनी बेटी के लिए टिकट मांगना परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देना था। जिसके खिलाफ भाजपा पहले ही मुखर रही है। राव को पीछे हटना पड़ा और ना चाहते हुए रेवाड़ी से भाजपा उम्मीदवार रणधीर सिंह कापड़ीवास के लिए वोट मांगे। यही स्थिति कोसली सीट पर रही। अपने छोटे भाई यादुवेंद्र सिंह को हराने के लिए राव इंद्रजीत सिंह को अपने समर्थक उम्मीदवार बिक्रम यादव की खुलकर पैरवी करनी पडी। 209 में भी इंद्रजीत सिंह को वहीं करना पड़ा जो भाजपा चाहती थी। बेटी को दुबारा टिकट नही मिला। लेकिन अपने समर्थक सुनील मुसेपुर को टिकट दिलाने में सफल जरूर हो गए.. लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद उसे जीत नहीं दिला सके।  यह वो दौर था जब राव भाजपा के भीतर ज्यादा लड़ रहे थे। सही कहे तो वे राजनीति के ऐसे चक्रव्यूह में घिर चुके थे जहा से निकलने का कोई सही रास्ता उन्हे नजर नही आ रहा था। जिसकी वजह से उन्हें जहा रेवाड़ी सीट खोनी पड़ी वही कोसली में अपने छोटे भाई को दुबारा हराने के लिए  भाजपा से लक्ष्मण यादव को जीताना उनकी मजबूरी बन गया। अगर वे सार्वजनिक तौर  ऐसा नही करते तो भाजपा में आ चुके उनके सबसे बडे धुर विरोधी जगदीश यादव को बर्दास्त करना उनके लिए मुश्किल हो जाता। यह रामपुरा हाउस की फिदरत रही है कि वे अपने राजनीति विरोधियों को जड़ से खत्म करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस परिवार का मानना है की जब मैदान में विरोधी ही नही रहेगे तो मुकाबला ही नही रहेगा। उधर अजीत सिंह पूरी तरह से अस्वस्थ्य रहने लगे थे जिसकी विरासत को उनके बेटे अर्जुन राव ने संभाल लिया। अर्जुन महेंद्रगढ़ जिले की अटेली विधानसभा सीट पर 2019 में कांग्रेस की टिकट पर लड़े लेकिन बुरी तरह से हार गए। यहा भी इंद्रजीत सिंह का अच्छा खासा असर था लेकिन वो भतीजे के खिलाफ रहा। समय के साथ रामपुरा हाउस पारिवारिक तौर पर संभलने की बजाय बिखरता जा रहा था। कोसली से यादुवेंद्र सिंह पूरी तरह से अलग थलग पड़ चुके है। वे कांग्रेस सांसद दीपेंद्र हुडडा के भरोसे खुद को बचाए हुए है। बीमार अजीत सिंह के लिए सबसे बडा सदमा अर्जुन राव की अचानक 19 अक्टूबर 2023 को मृत्य हो जाना रहा। अभी तक राजनीति से दूर रहे उनके छोटे बेटे अभिजीत राव ने उनकी अधूरी राजनीति को पूरा करने की दिशा में कदम बढा दिए है लेकिन अपने दम पर अब उनके लिए राजनीति में आगे बढ पाना फिलहाल आसान नजर नहीं आ रहा है। 2024  में इस बार  होने जा रहे लोकसभा एवं हरियाणा विधानसभा चुनाव में  इस परिवार का सबकुछ दाव पर लगा हुआ है। 74 साल के राव इंद्रजीत सिंह अकेले ऐसा चेहरा बचे है जिस पर 72 साल पुरानी रामपुरा हाउस की विरासत को संभाले रखना अब बहुत बडी चुनौती बन चुका है। चार बार विधायक पांच बार सांसद रह चुके इस नेता का इतना मजबूत राजनीति बायाडोटा भाजपा में शायद ही अन्य नेता का होगा।

इसके बावजूद दक्षिण हरियाणा का यह सबसे बड़ा नेता अपनी बेटी को राजनीति तौर पर स्थापित करने के लिए अपनी ही पार्टी में जूझ रहा है। भाजपा ने इस बार भी लगातार तीसरी बार गुरुग्राम लोकसभा सीट से राव को ही मैदान में उतारा है। यह भी सच है की यह नेता 2013 से आज तक मोदी के नाम पर ही लगातार जीतता आ रहा  हैं। तीसरी बार भी वह मोदी गारंटी लेकर मैदान में उतर चुके हैं। इसके बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव होने है। राव हर हालत में अपनी बेटी को उतारना चाहेगे जो आसान नही है। गौर करिए भाजपा हाईकमान ने लोकसभा में जिस तरह महारथियों के टिकट काटकर उन्हें घर बैठाया है। कुछ माह पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में राज घरानों को धाराशाही कर साधारण चेहरों को सीएम की कुर्सी पर बैठाया गया। ऐसे में राव के लिए भाजपा अपने तौर तरीकों और एजेंडे को बदल देगी। यह बहुत मुश्किल है। लेकिन राजनीति में कुर्सी के लिए समय के साथ सबकुछ बदल जाता है यह भी हकीकत है।कुल मिलाकर आज रामपुरा हाउस जिसे अपनी 72 साल की उम्र में बहुत आगे चला जाना चाहिए था।  वह अलग अलग वजहों से सिमटता जा रहा है। इसकी सही और असल वजह एक ही शख्स जानता है वो है खुद राव इंद्रजीत सिंह..।  जिसे आज भी अपनी जीत हासिल करने के लिए जनता के बीच मोदी गारंटी के साथ आना पड रहा है। देखना यह होगा राजनीति का यह खिलाड़ी समय रहते अपने घर को एकजुट कर मजबूत कर पाता है या फिर बढ़ती उम्र के साथ रामपुरा हाउस को भी उसके हाल पर छोड़ देगा।