दैनिक रणघोष: जिंदगी ओर कुछ नहीं तेरी मेरी कहानी है..

स्मृति शेष: कमला देवी


मां तो मां ही होती है.. एक बार उसकी रूह से मुलाकात तो करिए..


रणघोष खास. डॉ. पूनम की कलम


चलती फिरती हुई आंखों से अजां देखी है,मैंने जन्नत तो नहीं देखी, मां देखी हैमुनव्वर राना साहब की इन दो लाइनों ने सबकुछ कह दिया। 27 दिसंबर शाम 5 बजे एक हिचकी के साथ 90 साल जिंदगी का सफर तय करके मां (कमला) ने अपना शरीर छोड़कर पिता स्व. प्रो. देवेंद्र यादव को ज्वाइन कर लिया। शारीरिक तौर पर अब  वह हमें नजर नहीं आएगी। उनका संघर्ष,आदर्श ओर जीवटता हमेशा हम सब और समाज के लिए प्रेरणा बनी रहेगी। सच ही तो है एक दुनिया है जो समझाने से भी नहीं समझती एक मां थी बिन बोले सब समझ जाती थी

 आइए मां के बचपन में लेकर चलती हूं  

पूर्व सांसद गुड़गांव राव गजराज सिंह की नातिन कमला का जन्म सन 1931में एक सम्पन्न ओर संभ्रांत परिवार में बलबीर सिंह यादव इलाहाबाद के घर हुआ था और कमला ने कभी सपने में भी नही सोचा होगा कि उसे जिंदगी में बहुत कुछ कठोर वक्त भी देखना व सहना पड़ेगा। जब कमला पैदा हुई तो पिता बलबीर सिंह ने उनका नाम ही स्वराज रख दिया,जिस नाम से अंग्रेजी हुकूमत को सबसे ज्यादा चिढ़ थी क्योंकि उस वक्त भारत की आज़ादी का आंदोलन चरम पर था गांधी और नेहरू का दौर था और बलबीर सिंह भी नेहरू के साथ आजादी के आंदोलन का एक अहम हिस्सा बन गए थे जिनको उस वक्त पागल समझकर उनके पिता ने घर से ही निकाल दिया और मात्र 23 साल की उम्र में आज़ादी के आंदोलन और घरेलू संघर्षों के चलते 1936/37 में  कमला के पिता बलबीर सिंह की म्रत्यु हो गई थी।और यही से शुरू होती है स्वराज से कमला बनी एक पाँच साला बच्ची के संघर्षों की कहानी। कमला की माँ और 23 साला बलबीर सिंह की विधवा के लिए ससुराल इलाहाबाद पति की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ही इतना तंग हो गया कि अपने तीनो बच्चो को लेकर आसरा लेने के लिए अपने पीहर गुड़गांव आना पड़ा। सहारा तो मिला लेकिन तीन बच्चे तीन जगह बंट गए क्योंकि कोई मामा एक साथ ये सब बोझ उठाने को तैयार नही हुआ और आखिर कमला भी एक मामा के हिस्से में आ गई। कमला की पढाई बमुश्किल 8वी कक्षा तक हो पाई थी क्योंकि कमला अब अपने मामा के घर की एक अनकही नोकरानी सी बन चुकी थी। देखने में कमला सुंदर और सोचने में सुलझी हुई थी इसीलिए कम उम्र में अपनी माँ की बहुत घोर पूजा पद्धति का विरोध करती थी कि इन तथाकथित भगवानो ने आपको दुखो के अलावा कुछ दिया है क्या ??

बहरहाल कमला जवान होती है और इन्ही संघर्षों के चलते कमला की शादी सहारनबास रेवाड़ी के देवेंद्र सिंह से हो जाती है देवेन्द्र 8 साल की उम्र में सन 1938 में हिसार के एक हिन्दू मुस्लिम बल्वे में अपने पिता राम सिंह को खो चुके थे और बीमारी के चलते एक आंख भी चली गई थी।

लेकिन कमला ने नियति मानकर अपना जीवन निर्वाह करना था तो सब कुछ सहज स्वीकार कर लिया और देवेंद्र सिंह के घर को ही सब कुछ मान लिया। नानी ने घर के गहने बेचकर मां की शादी की। जब वह ससुराल आई तो उसे ताने मिले कुछ भी लेकर नहीं आईं। उसी समय पिताजी मां के साथ चट्‌टान की तरह खड़े नजर आए ओर  स्पष्ट कर दिया कर दिया जब भी वह अपने मायके जाएगी कुछ भी लेकर नहीं आएगी। कमला को अहसास हो गया कि उनका जीवन साथी उनका पति देवेंद्र सिंह एक सामाजिक साधु संत है उनके साथ भर से उनकी जिंदगी के मायने बदल जाएंगे और यही वो पल थे जहाँ से कमला की जिंदगी के अच्छे दिनों की शुरुआत होती है क्योंकि इसी बीच देवेंद्र सिंह प्रोफेसर देवेंद्र सिंह बन जाते और कमला को भी पढ़ा लिखाकर पहले एक टीचर और प्रिंसीपल बना देते है। पढ़ाई की लगन देखिए। भैस का दूध निकालते समय साइड में किताब खोलकर पढ़ती रहती थी। एक समय आया जब उनकी याददाशत साथ नहीं दे रही थी।उसी समय प्रिंसिपल पद से इस्तीफा दे दिया। पत्र में लिखा कि वह अपनी डयूटी के साथ न्याय नहीं कर पा रही है। वह नहीं चाहती कि उसे घर बैठे वेतन मिले इसलिए इस पद को छोड़ रही है।

गृहस्थ जीवन की बुनियाद को कमजोर नहीं होने दिया


 कमला (मां) की गृहस्थ जीवन की शुरुआत पहली बेटी नीलम,दूसरी बेटी पूनम और तीसरा बेटा योगेंद्र यादव और उनके बेटे समान दामाद डॉ नरेंद्र यादव,दीपक एडवोकेट और बेटी समान बहू डॉ मधुलिका बैनर्जी। कमला की बेटी नीलम,पूनम और बड़े दामाद डॉ नरेंद्र मशहूर व मारूफ डॉक्टर है जो रेवाड़ी में कलावती हॉस्पिटल ओर कमला हॉस्पिटल चलाते है जो नीलम की सास कलावती और माँ कमला के नाम से स्थापित किये है। बेटा योगेंद्र यादव को कौन नही जानता वो किसी परिचय के मोहताज नहीं है और बहू मधुलिका दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक नामचीन प्रोफेसर है आज़ एक भरपूर सम्पन्न संभ्रात परिवार को छोड़कर कमला माई इस फानी दुनिया से चली गई है लेकिन उनकी यादें ओर संघर्ष की स्मृतियां हमेशा हमारे जहनो से वाबिस्त रहेगी। उनकी बहू मधुलिका और बेटियो से उनके जीवन के आदर्शों मूल्यों को सुने और लिखे तो पूरी किताब लिखी जायेगी लेकिन आज़ के लिए बस इतना ही कि ऐ माँ तुझे सलाम।

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