विभाजन या इतिहास के किसी भी कांटेदार खंडहर में फंसे जिस्मों को भूलकर, अगर सत्ताधारियों के लिबास में नज़र आने वाले के जाल को नहीं तोड़ा गया तो मरने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा और मारने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा.
रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से
मैं भारतीय नागरिक हूं लेकिन अक्सर ‘संदिग्ध’ और कई बार ‘ग़द्दार’ बताया जाता हूं। भले आप मुझे न जानते हों, मुझसे न मिले हों…फिर भी मेरे नाम का इश्तिहार आपको हर तरफ़ नज़र आता है। जहां मैं ‘राष्ट्रद्रोही’ हूं…और शायद मुझे भी ये बताया जा रहा है कि मैं एक ऐसे धर्म में आस्था रखता हूं जो मुझे ‘हिंसा के लिए उकसाती है। बहुत मुमकिन है कि कई बार जिसे सिर्फ़ चुनावी इश्तिहार समझ रहे हों वो असल में मेरे नाम का ‘मोस्ट-वॉन्टेड’ पर्चा भी हो। यहां पर कोई कह सकता है कि साफ़-साफ़ कहो, मैं भारतीय हूं…यक़ीन जानिए मैं यही कहना चाहता हूं…लेकिन, तभी मुझे धर्म के नाम पर होती हिंसा याद आने लगती हैं। लहूलुहान चेहरे नज़रों में फिरने लगते हैं। एक अजीब तरह के शोर और साएं-साएं से भर गया हूं। ऐसे में क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं हिंदू हूं,मुसलमान हूं, ईसाई हूं, दलित हूं या कुछ और? कहीं न कहीं सबकी पीड़ा एक ही तो है। ख़ैर, पहले मैंने कहा कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारत का नागरिक हूं. इसी मिट्टी से जन्मा हूं और इसी में मिल जाना है। कई दिनों से ये बातें विचलित कर रही हैं। एक नागरिक के तौर पर और शायद भारतीय होने के नाते भी। हां, शायद इसलिए भी कि संसद मौन है और ‘धर्म संसद’ में नरसंहार का ऐलान हो रहा है। आपत्ति और हमलों के स्वर में नफ़रत बांटी जा रही है। मैं समझता हूं इतिहास कभी अपने लोगों के लिए इतना निर्दयी नहीं हुआ.। और मैं ये सब सुनते हुए दो ज़मानों में बंट गया हूं। मुझे मेरे जिस्म का एक हिस्सा विभाजन और उसकी त्रासदी में फंसा हुआ नज़र आता है। दोनों हिस्सों को मिलाने की कोशिश करता हूं तो महसूस होता है कि किसी इमारत की तरह ढह जाऊंगा। आपको लग सकता है कि मैं रो रहा हूं, उदास हूं, बुज़दिल हूं या बद-गुमान हूं। मुमकिन है आप ठीक समझ रहे हों, लेकिन ये आंसू सिर्फ़ मेरे नहीं हैं, ये उदासी भी सिर्फ़ मेरी नहीं है और बुज़दिल या बद-गुमान तो मैं क़तई नहीं हू। ‘मेरी मुसीबत ये है कि मैं आज बाबर को बुलाकर उससे ये नहीं कह सकता कि तुमने हिंदुस्तान पर हमला क्यों किया? मैं आज शिवाजी से ये नहीं कह सकता कि तुम औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ बग़ावत का अलम क्यों बुलंद करते हो. मैं हिंदू से उसका वेद और मुसलमान से उसका क़ुरान नहीं छीन सकता. मैं मुसलमान को गोश्त खाने से मना नहीं कर सकता. हिंदू को धोती पहनने से रोक नहीं सकता. मैं किसी से उसका मज़हब, उसका कल्चर… छीनना नहीं चाहता. मैं सिर्फ़ वो नफ़रत छीन लेना चाहता हूं- वो जो तुम्हारे सीने में दबी पड़ी है.’
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