यह लेख खाटू श्याम नगरी की माटी से निकले सवालों से जन्मा है, अटूट आस्था रखने वाले इसे पढ़कर जरूर शेयर करें।

बाबा के दरबार में बढ़ रही भीड़ भक्ति है तो आस्था बाजार में क्यों लूट रही है..


IMG-20230620-WA0008[1]रणघोष खास. प्रदीप नारायण
4 साल बाद राजस्थान रींगस की माटी को स्पर्श करते हुए बाबा खाटू श्याम की धर्म नगरी में डुबकी लगा लेने का अवसर मिला। इंसानी फिदरत को छोड़ सबकुछ तेजी से बदलता नजर आया। सिकुड़ी सड़कें चौड़ी होकर इतरा रही थी। रींगस स्टेशन भी लंबे समय बाद समझदारी के साथ जिम्मेदारी निभाता नजर आया। सड़क के दोनों तरफ बाबा के अनगिनत नामों से जन्म ले रहे होटल- रेस्टारेंट, धर्मशालाओं में ऐसी होड़ देखी कि बची खुची खाली जमीन बाबा से इंसानी जमात से अपनी जिदंगी बचाने की गुहार लगाती नजर आईं । यहां टैक्सी वाहन चालकों में गजब की भक्ति देखने को मिली। बस से रींगस- खाटू नगरी किराया 30 रुपए, छोटे वाहन 40 और शाम होते ही यह किराया 50 रुपए प्रति सवारी शेयर मार्केट की तरह बढ़ जाता है। ऐसा महसूस कराया जाता है कि वाहनों का किराया भी बाबा के दरबार से तय होता है। इस धर्मनगरी के प्रवेश द्वार पर कदम रखते ही अलग अलग प्रांतों व उसमें बसे शहरों में रहने वाली जातियों के नाम पर बनी धर्मशालाएं चेहरा देखकर स्वागत करती नजर आती है। ऐसा लगता है कि यहां आकर हमारी असल मूल पहचान भारतीय ना होकर किसी राज्य, शहर, जाति ओर उसमें छिपे एक वंश मूल समूह से बने गौत्र से तय होती है। अगर आप किसी धर्मशाला में खुद को भारतीय बताते हैं तो तय किराया देना पड़ेगा। शहर- जाति- गौत्र बताते ही विशेष छूट मिलेगी। मतलब पैसा बचाना है तो यहां राष्ट्रीयता को जाति के सामने छोटा कर दीजिए क्या फर्क पड़ता है। धर्म की इस नगरी में ऐसा करना जायज माना जाता है। इन धर्मशालाओं में सुविधाओं का आनंद भी वहीं ले सकता है जिसकी जेब दमदार हो। समाजसेवा का रौब देखना है तो होटल की शक्ल में बनी इन धर्मशालाओं की दीवारों पर दानवीरों के नाम पढ़ते चाहिए। जिसने सबसे ज्यादा की पर्ची कटाई वह नोटिस बोर्ड पर टॉप पोजीशन के साथ रौब दिखाता नजर आएगा। ये दीवारें इस बात की गवाह है कि इंसान की हैसियत खाटू दरबार में भी पैसो के तराजु से तोली जाती है। ऐसा करने वालों का मानना है कि धन दान समाजसेवा का मूल स्वरूप है जिससे जल्द पहचान मिलती है। इस मानसिकता को सही माने तो आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार को अपनी हैसियत देखकर ही बाबा की नगरी में बने इस भवन में कदम रखने चाहिए। वजह ठहरने का जो किराया तय किया हुआ है वह संपन्न परिवारों के लिए वेटर को टिप्स देना वह समाज के अंतिम परिवार के घर का बजट जितना होता है। जाहिर है धर्म के नामकरण से बने इन भवनों का डिजाइन भी अमीरी- गरीबी की शक्ल का अहसास कराता है। बात यहीं खत्म नहीं होती।। इस नगरी में खुली बेहिसाब दुकानों में भी बाबा के नाम की पॉलिस कर समान की कीमतें एक समान ना होकर कम ज्यादा की दिमागी कसरत से तय होती है। अपना माल बेचने वाला झूठ को सच के बराबर तोलने में माहिर नजर आता है तो खरीदने वाला उसके आधे सच को अपने झूठ से झुठलाने में पूरी ताकत लगा देता है। मुनाफे के इस खेल को ध्यान से देखा तो बाबा की आस्था कोने में दुबकी नजर आईं। यहां से निकल जैसे तैसे बाबा के दर्शन के लिए बनी लाइनों की कतार में खड़े हुए तो वीआईपी दर्शन ने सबकुछ बता दिया। हमें अपनी गलती का अहसास हो गया। धर्म का बाजार तो वीआईपी दर्शन के रास्ते आ जा रहा है। इसका मतलब इस धर्मनगरी के क्रिया कलाप में कोई गलत नहीं है। हमारी सोच में गड़बड़ी थी जिसे हम आस्था- विश्वास- समानता- संकट हरण- पालनहार समझ बैठे थे उसे तो धर्म के बाजार ने नाकाबंदी कर दी है। दिलों दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। समझ में नहीं आ रहा खाटू धाम की नगरी में लगातार बढ़ रही भीड़ अगर भक्ति है तो वह शक्ति कहां है जो इस बाजार में कदम कदम पर लूटती आस्था की अस्मिता को बचा ले। इस सवाल की अर्जी लगाकर हम बाबा के दरबार से घर लौट आए। देखते है कब बुलावा आता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *