रणघोष की सीधी सपाट बात : सत्संग में पास कल्चर आस्था से भाव को अलग कर रहा है..

कौन भक्त कितना वजनदार और किसकी क्या हैसियत है..


 रणघोष खास. सुभाष चौधरी

सत्संग के पंडाल में प्रवेश करने के लिए पास की  संस्कृति ने धर्म- आस्था को भी स्टेटस के तौर पर दिखना व  दिखाना शुरू कर दिया है। कहने को पास की जरूरत व्यवस्था बनाए रखने का और इस आयोजन में आर्थिक तौर पर मदद करने वालों के लिए सम्मानजनक सुविधा है लेकिन व्यवहारिकता में  सत्संग में भी इसकी उपयोगिता एक तरह से सर्कस- सिनेमाघरों जैसी बन जाएगी। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।  रेवाड़ी में चल रही पंडित प्रदीप मिश्रा की शिव महापुराण कथा से मनो मस्तिक पर क्या असर हुआ, कितना मनन किया, उससे ज्यादा पास मिला की नहीं की चर्चा सुर्खियां बटोर रही है। यह इंसान की अपनी फिदरत है। जब वह सिनेमाघर में जाता है तो वह पीछे वाली सीट के लिए संघर्ष करता है। सत्संग में आता है तो सबसे आगे बैठने की जिद पर आ जाता है। सिनेमाघर में स्क्रीन का बड़ा सा पर्दा होता है। हो सकता है कि उसके करीब रहने पर आंखों पर असर पड़े । इसलिए पीछे की सीट भी वहीं लेगा जिसका पर्स वजनदार होगा। वजह वह सीट हर लिहाज से सकुन देती है। सत्संग में स्क्रीन की बजाय सीधे वक्ता से रूबरू होना होता है। इसलिए आगे बैठने वालों का मानना है कि वे जितने करीब से कथा वाचक को देखेंगे सत्संग का भाव व आनंद उतना ही ज्यादा हिलोरे मारेगा। सत्संग में जो सबसे पीछे है वहां बैठना उसकी मजबूरी हो सकती है। या तो उसने सत्संग व्यवस्था मे पर्ची नहीं कटवाई या उसकी हैसियत से बाहर का मामला था। इसका मतलब यह नहीं कि सत्संग से निकलने वाला भाव सुबह शाम की ताजा- बासी सब्जी की तरह आगे पीछे बैठे श्रोताओं को इस तरह की  अनुभूति कराएगा। देखा जाए तो संघर्ष पीछे बैठने का नहीं स्टेटस से जुड़ा है। ऐसा मानना है कि जो आगे बैठे हैं वे  सामाजिक और आर्थिक तौर पर हैसियत में थोड़ा सा बड़े  हैं जो पीछे हैं उन्हें अपने बारे में बताने की जरूरत नहीं। यहीं मानसिकता स्टेटस से जुड़कर सत्संग के भाव को कमजोर करने का दुस्साहस करती नजर आती है। शहर में चल रहे इस सत्संग के बहाने  इंसानी मानसिकता को भी बखूबी समझा जा सकता है।  जिन्हें सबसे आगे बैठने का अवसर नहीं मिल पा रहा है या दूसरे शब्दों में कहे कि उनके पास नहीं है वे आयोजकों की व्यवस्था को अपनी सोच से उंगली उठाने में  कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जिनकी जेब में पास है  उसकी जुबान पर पंडित जी के प्रवचन हिलोरे मारते नजर आ रहे  है। यानि इस मानसिकता मे सत्संग की गरिमा व पवित्रता अलग अलग तराजु में तुल रही है। सत्संग के पंडाल में  कहने को सभी  समान है कोई छोटा बड़ा, अमीर- गरीब नहीं लेकिन पास के स्टेटस ने यह जरूर अहसास करा दिया है कि धर्म- आस्था का भी अपना लेवल है वह चेहरे देखकर तय करती है कि कौन कितना वजनदार वाला भक्त है और किसकी क्या हैसियत है।