रणघोष की सीधी सपाट बात

मीडिया में अभी भी  कुछ अवशेष बचे हैं यानि हम अभी जिंदा है..


सबकुछ छपना, छपवाना आसान है इसलिए हमें सीरियस लेना बंद कीजिए


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


कायदे से परिवार- समाज- राष्ट्र के नाम पर ऐसी कोई जगह नहीं बची जिस पर गर्व के साथ इतराया जा सके। हम मीडिया वाले हैं इसलिए अपनी बात पहले रख रहे हैं। ईमानदारी से कह ओर लिख पाए तो मान लेना हमारे जिंदा रहने की गुंजाइश अभी बची हुई है। रूटीन में हमें इन दिनों अलग अलग नामों से बुलाया जाता है। भाजपा के पक्ष में लिखने पर गोदी मीडिया कहा जाता है। खिलाफ जाते ही राष्ट्रद्रोही साबित करने की तैयारी हो जाती है। निष्पक्ष रहने पर  पक्ष- विपक्ष मिलकर अपने तरीके से बदनाम करने में जुट जाते हैं। पक्ष- विपक्ष- निष्पक्ष तीनों से बचकर  जो मीडिया रूटीन कवरेज में आता है। खुद को जिंदा रखने के लिए जबरदस्ती पैदा की गईं उन तमाम खबरों को छापने एवं छपवाने के लिए मजबूर हो जाता हैं जिसका कोई वजूद नहीं है। पौधे लगाना, ईमानदारी- अनुशासन- भ्रष्टाचार के खिलाफ शपथ लेना, भंडारा- जागरण करना, ईमानदारी का परिचय देना जैसी  खबरें  स्थानीय स्तर पर  लोकल पुल आउट व लोकल  चैनल पर ऐसी दौड़ती  है मानो अगर इनकी कवरेज नहीं हुई तो समाज का चेहरा ही बिगड़ जाएगा। नतीजा धीरे  धीरे इस तरह की खबरें छपवाने वाले ही अपना प्रभाव जमाने के लिए  इसे कमजोर, बेचारा, दीन हीन मीडिया मानकर उसे  जिंदा होते हुए भी मरा हुआ घोषित करने का प्रचार शुरू कर देते है।  लिहाजा पाठक- दर्शकों ने भी अब बेहद ही आसानी से खबर प्रकाशित करने वाले इस तरह के  मीडिया को सीरियस लेना बंद कर दिया हैं। उसका वहीं हाल हो रहा है जो आकाशवाणी एवं दूरदर्शन का हो चुका है। इसलिए आपने देखा होगा कि ऐसे हालात में  खुद को नंबर वन, राष्ट्रीय चैनल बताने वाले एंकरों को इन दिनों भौंकने व चिल्लाने की ट्रेनिंग दी जा रही  है ना की सलीके- मर्यादा से अपनी बात रखने की। इसी तरह एंकर के आजू बाजू नजर आने वाले पैनलिस्ट भी उसी तरह की तैयारी के साथ आते हैं। फिर शुरू होता है खबरों के नाम पर तमाशा- शोर- गाली गलौच, एक दूसरे को नीचा दिखाने यहां तक की मारपीट। अब गौर करिएगा ऐसा करने वाले चैनल शानदार टीआरपी( टेलिविजन रेंटिंग प्वांइट  मतलब किस चैनल को सबसे ज्यादा देखा गया  का ) लेकर नंबर वन बनकर करोड़ों- अरबों रुपए का विज्ञापन हासिल कर ताकतवर मीडिया के तोर पर अपना प्रभाव डालते नजर आते हैं। अब सवाल आता है कि इन चैनलों को नंबर वन किसने बनाया। उन दर्शकों ने जो कांमेंट बॉक्स में, अपनी फेसबुक, ट्वीटर एवं भाषणों में मीडिया पर सबसे ज्यादा उंगली उठाते हैं। नसीहत का पाठ पढ़ाते हैं। यहीं इन चैनलों को सबसे ज्यादा देखते हैं ओर अपने दिमाग में उनका परोसा गया  कचरा भरकर चोरी छिपे इधर उधर उसे फैंकना शुरू कर देते हैं ताकि उनकी पोल ना खुल जाए।  दूसरी तरफ उस मीडिया पर नजर दौड़ाइए जो ना भौंकता है ना काटता और चिल्लाता है। बस सलीके से अपनी बात कहता है। नतीजा यह मीडिया बेचारा व सहानुभूति की शक्ल में तब्दील कर दिया जाता है। बाजार में इसकी अहमियत उसी समय महसूस आती हैं जिस तरह 15 अगस्त- 26 जनवरी के दिन देशभक्ति, मदर- फादर्स डे पर माता-पिता, राष्ट्रीय पर्वों पर आपसी भाईचारा  नजर आता है..। लिहाजा एक समय बाद सलीके से चलने वाला मीडिया का एक तबका तड़फ तड़फ कर दम तोड़ देता है। उसके मातम पर वहीं भीड़ नजर आती हैं जो जिंदा रहते उसके मरने का इंतजार कर रही थी। इस मीडिया का बाकी बचा हिस्सा ऐसी स्थिति में  उसी जमात में शामिल होने को मजबूर हो जाता है जहां बोलने के नाम पर भौंकते, चिल्लाते मीडिया को सुनने की होड़ मची हुई है। इस सबके बावजूद मीडिया पूरी तरह से मरा नहीं है। अवशेष अभी भी बचे हुए हैं यानि सांस अभी चल रही है। हमारा मानना है कि बुराईयां कितनी ही बड़ी क्यों ना हो अच्छाई के सामने हमेशा छोटी ही रहेगी। इसी उम्मीद के साथ हमने अपनी बात रखी है। सही लगे तो शेयर जरूर करिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *