रणघोष खास में पढ़िए : कौड़ी के मोल से लेकर पाई-पाई के मोहताज तक

 कैसे अस्तित्व में आया सिक्का और क्या है इसका इतिहास


1 रुपये और 50 पैसे के तांबे-निकल वाले सिक्कों को फिर से जारी नहीं करने का आरबीआई का फैसला, सिक्के के लंबे इतिहास का अंत लाता है जो ‘फूटी कौड़ी’ से शुरू हुआ था.


 रणघोष खास. संजीव चोपड़ा, रि. आईएएस, दी प्रिंट से

पूरी संभावना है कि ज्यादातर मिलेनियल्स ने सिक्के और टिकटें केवल डाक टिकट कलेक्शन और मुद्राशास्त्रीय म्यूज़िम्स में ही देखे होंगे या देख पाएंगे. इंटरनेट और कूरियर सेवाओं ने टिकटों, पोस्टकार्डों, अंतर्देशीय पत्रों और एयरोग्राम के साथ क्या किया है, गूगल पे, फोनपे, और यूपीआई जैसी डिजिटल भुगतान प्रणालियों ने साधारण पैसा सहित विभिन्न मूल्यवर्ग के सिक्कों के लिए क्या किया है.

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने साफ साफ कहा है कि 1 रुपये और 50 पैसे के तांबे-निकल (एक तरह का धातू) के सिक्के अब किसी भी बैंक द्वारा दोबारा जारी नहीं किए जाएंगे. जबकि ये सिक्के अपना ‘अंकित मूल्य’ (फेस वेल्यू) बरकरार रखेंगे. 50 पैसे का सिक्का केवल दस रुपये के लेनदेन के लिए वैध माना जाएगा वहीं एक रुपये के सिक्के की लेनदेन सीमा एक हज़ार रुपये होगी.पुरानी पीढ़ियों को एक, दो, तीन, पांच, दस, बीस, पच्चीस और पचास पैसे के सिक्के याद होंगे. कई बॉलीवुड गानों के बोल में ‘पैसा’ शब्द शामिल है. हालांकि, भारत की आज़ादी के पहले छह दशकों में दोहरे अंक वाली महंगाई के कारण, ‘पैसे’ का मूल्य इतना कम हो गया कि 30 जून 2011 को 25 पैसे और उससे कम मूल्य वाले सभी सिक्के आधिकारिक तौर पर बंद कर दिए गए थे. यह अखबारों के पहले पन्ने पर भी जगह नहीं बना पाए. फिर भी, भारतीय रुपया (INR), अपने नए प्रतीक के साथ, 100 ‘पैसा’ के संदर्भ में परिभाषित किया जाता रहा है.

सभी सिक्के और मुद्राएं

व्युत्पत्ति के अनुसार, ‘रुपया’ शब्द रुपया या रूपा से आया है और इसका पहला संदर्भ छठी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के पंचनद (पंजाब) प्रांत के पाणिनी द्वारा रचित ‘अष्टाध्यायी’ से मिलता है. शुरुआत में एक रुपया 5,275 ‘फूटी कौड़ियों’ के बराबर था, जो छोटी समुद्री सीपियां थीं. समय के साथ, विभिन्न संप्रदाय उभरीं, जिनमें ‘दमड़ी’, ‘पाई’, ‘ढेला’, ‘पैसा’, ‘टका’, ‘अन्ना’, ‘दोअन्नी’, ‘चवन्नी’, ‘अठन्नी’ और अंत में ‘रुपया’ शामिल किया गया है.दुनिया के सबसे पुराने विनिमय माध्यमों में से एक के रूप में ‘फूटी कौड़ी’ का अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व है और इसका मूल्य इसकी प्राकृतिक कमी से प्राप्त होता है. एक कौड़ी या चौड़ी तीन ‘फूटी कौड़ी’ से बनी होती थी: जिसका प्रचलित उदाहरण है — एक फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा.‘पाई’, ‘ढेला’, ‘पैसा’, ‘टका’, ‘अन्ना’, ‘दोवन्नी’, ‘चवन्नी’, ‘अठन्नी’ और अंत में ‘रुपया’ असल में ढले हुए सिक्के थे. इनमें से पहला पीतल से तैयार किया गया था, जिसमें लगभग 2,400 साल पहले हिंदू देवताओं के चित्र थे. बौद्ध काल के दौरान, उनमें बुद्ध का चित्र था. एक रुपया 64 पैसे से बनता था और 4 ‘पैसे’ से एक आना बनता था. इससे यह लोकप्रिय कहावत बनी — ‘सोलह आने सच’. विशेष रूप से एक ‘पैसा’ स्वयं 3 ‘पाई’ से बना था — जिसका प्रचलित उदाहरण है — पाई पाई का हिसाब लूंगा; ‘पैसे’ और ‘पाई’ के बीच एक ‘ढेला’ था, जो 1.5 ‘पाई’ के बराबर था, जैसा कि एक पुरानी स्त्रीद्वेषी कहावत है — ढेले का काम नहीं करती हमारी बहू. एक ढेला दो दमड़ियों से मिलकर बनता है — चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए. हर दमड़ी में दस कौड़ियां होती थीं.हिमालय क्षेत्र और बंगाल में ‘टका’ शब्द, जो संस्कृत शब्द ‘तंखा’ से लिया गया है, का उपयोग चांदी के रुपये के लिए किया जाता था. टका अब बांग्लादेश की मुद्रा है. 1971 से पहले पाकिस्तान में करेंसी नोट पर रुपया और टका लिखा होता था. हालांकि, दोनों का मूल्य बराबर था.

संप्रभुता का प्रतीक

सिक्कों की ढलाई और करेंसी नोटों की छपाई हमेशा संप्रभुता का प्रतीक रही है. इसलिए, भारत में सिक्कों का इतिहास पंचनद के जनपदों से यूनानियों, मौर्यों, गुप्तों, कुषाणों, कलिंगों, सातवाहनों, तुर्कों, अफगानों, मुगलों, ईस्ट इंडिया कंपनी (ईआईसी), ब्रिटिश क्राउन और अंततः, भारतीय गणराज्य सहित विभिन्न शासकों को सत्ता के हस्तांतरण के साथ जुड़ा हुआ है. (यह सूची उदाहरणात्मक है, संपूर्ण नहीं.) किसी मुद्रा की भौगोलिक पहुंच संप्रभु शक्ति की सीमा का भी संकेत देती है. जैसे ही रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिखों और मराठों ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, मुगल मुद्रा कम हो गई और नानक शाही सिक्के उत्तर में प्रमुख हो गए. मराठों ने अपने प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में तीन प्रकार के रुपये पेश किए, जिन्हें हाली सिक्का, अंकुशी और चंदोरी रुपये के नाम से जाना जाता है.

ईस्ट इंडिया कंपनी की तीन प्रेसीडेंसी में से प्रत्येक की अपनी अनूठी सिक्का और मौद्रिक प्रणाली थी. दिसंबर 1672 में कंपनी ने बॉम्बे में एक टकसाल शुरू की, जहां उन्होंने यूरोपीय शैली के सोने, चांदी, तांबे और टिन के सिक्के ढाले. सोने के सिक्के को कैरोलिना, चांदी के सिक्के को एंग्लिना, तांबे के सिक्के को कूपरॉन, टिन के सिक्के को टिन्नी कहा जाता था.इसके अलावा, बॉम्बे मिंट ने जेम्स द्वितीय और विलियम III और क्वीन मैरी जैसे अंग्रेज़ी राजाओं के नाम वाले फ़ारसी शैली के सिक्के जारी किए. मद्रास प्रेसीडेंसी का सिक्का विजयनगर प्रतिमान से प्रभावित था, जिसमें भगवान वेंकटेश्वर और उनकी दो पत्नियों के चित्रण के साथ सोने के पगोडा शामिल थे. बंगाल प्रेसीडेंसी अपना सिक्का शुरू करने वाला आखिरी प्रेसीडेंसी था. 1757 में बंगाल के नवाब पर ईआईसी की जीत के बाद, उन्होंने मुगल शैली का एक रुपया सिक्का जारी किया, खासकर 1765 में सम्राट शाह आलम द्वितीय से बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के बाद, जिसे बंगाल प्रेसीडेंसी के सिक्का रुपया के रूप में जाना जाता है.1835 के बाद, ईआईसी ने विशेष रूप से रॉयल चार्टर के तहत सिक्के जारी करना शुरू किया और 1858 के बाद, भारत में ब्रिटिश सरकार ने सीधे इन सिक्कों का खनन किया. 1876 के रॉयल टाइटल एक्ट के साथ, रानी विक्टोरिया ने “Empress of India” की उपाधि अपनाई, जिससे 1877 में सिक्के के शिलालेखों में ‘‘विक्टोरिया रानी” से ‘‘विक्टोरिया महारानी” में परिवर्तन हुआ. विशेष रूप से रानी विक्टोरिया ऐसी पहली महिला नहीं थीं, जिनके पास यह उपाधि थी. भारतीय सिक्कों पर अंकित नाम; यह गौरव रजिया सुल्तान को जाता है, जिन्होंने 650 साल पहले 1237-38 में अपने नाम के सिक्के चलवाए थे.

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