डंके की चोट पर: लोकतंत्र अपने घर से शुरू होता है, इसलिए विरोध में न्याय तलाशिए, आंखें ना दिखाए

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत में इन दिनों ठीक नहीं चल रहा है। जहां सभी को मिलकर कोरोना से लड़ना था वहां हम वायरस से ज्यादा खतरनाक होकर आपस में लड़ रहे हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए भारत का लोकतंत्र हमारे अपने घर से शुरू होता रहा है।  युद्ध के निर्णय पर राम और लक्ष्मण की राय भिन्न होती थी। श्रीकृष्ण और बलराम के बीच भी विचारों की भिन्नता और कौरवों एवं पांडवों के प्रति कई बार अलग रुख देखने को मिलता है।  आधुनिक युग में देखें, तो महात्मा गांधी के अनुयायियों में विभिन्न विचारों के लोग शामिल होते थे। किसी ना किसी घर में कोई  आर्य समाजी हैं, तो उनकी जीवन साथी पक्की मूर्तिपूजक हैं। एक कक्ष में यज्ञ के साथ मंत्रोच्चार, तो दूसरे कक्ष में सुंदर मूर्तियों के सामने पूरे मनोयोग से पूजा, भजन कीर्तन। इन दिनों सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में यह देखकर तकलीफ होती है, जब सहमति या असहमति को घोर समर्थक अथवा विरोधी करार दिया जाता है। कम से कम कुछ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर परस्पर सौहार्दपूर्ण विचारविमर्श के साथ दूरगामी हितों की दृष्टि से और भविष्य निर्माण के लिए संयुक्त रूप से निर्णय क्यों नहीं लिये जा रहे हैं। सत्तर वर्षों का हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि अरबपति उद्योगपति, राजामहाराजा, प्रधानमंत्री तक चुनाव में पराजित हुए हैं और पंचायत स्तर तक जनता के बीच से चुनकर आये लोग मंत्री और प्रधानमंत्री भी रहे हैं। इसलिए देश के कई महत्वपूर्ण मसलों पर आपसी टकराव की बजाय समझदारी से अपने दायित्य को निभाए।

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