विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

कलम कुछ कहती है..


सच को यह बताना पड़ रहा है कि हम सचमुच में सच है..


IMG-20221214-WA0006[1]रणघोष खास. प्रदीप नारायण


3 मई को हम विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। अच्छी बात यह है कि इस दिवस में स्वतंत्रता शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसलिए मौका है इस दिन का भरपूर फायदा उठाकर वह लिखने का दुस्साहस किया जाए जो अगले दिन आमतौर पर सजा में तब्दील हो जाती है। इस दिन पूरे विश्व जगत में हमारे हितों- अधिकार विशेषतौर से आजादी को लेकर शानदार शब्दों का समुद्र जमकर हिलोरे मारता है। जिसे देख मन करता है कि इसमें डुबकी लगा दे। ख्याल आता है तैरना तो आता नहीं चलो इसके किनारे खड़े होकर तेजी से उठ रही लहरों को देखकर ही मुस्करा दे। कई बार लहरों के लहजे को देखकर भी डर लगता है कि वह समुद्र की गिरफ्त से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही है या समुद्र पिता उसे हालातों से लड़ने के लिए मजबूत कर रहा है।
दैनिक भास्कर ने इस अवसर पर पत्रकारिता के मौजूदा हालात में खुद पर गर्व किया है। भास्कर का दावा है कि हम वक्त की कसौटी पर खरी, सच के सूर्य की तरह दमकती पत्रकारिता के नायक है। हमने अपनी कलम से सच को सींचने का उसे पल्लवलित- पोषित करने का जिम्मा बखूबी निभाया। चाहे दौर कोई भी हो, हमेशा सही को सही और गलत को गलत कहना अपना ध्येय वाक्य बनाया। भास्कर ने पत्रकारिता पर लिखे अपने संपादकीय में जमकर अपनी गौरव यात्रा को सांझा किया है। इसे कुछ हद तक स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं दैनिक भास्कर की एडिटोरियल टीम ने मूसल की तरह भारी, करेले की तरह कड़वा बनकर ऐसे हालातों में सच को दिखाया जहां हिम्मत मौजूदा डर को देखकर नेत्रहीन हो गई थी। अब सवाल यह उठता है कि सच को यह बताना क्यों पड़ रहा है कि हम सचमुच में सच है। इसकी वजह को समझना जरूरी है। दरअसल गहन अंधकार में हाथ में जब आप जलता हुआ दीपक लेकर चलते हैं, जिसका प्रकाश चारों तरफ फैल रहा है। तब लोगों को उजाला नजर आता है। उस समय दीपक को लिए चल रही हथेली की झुलस पर किसी की नजर नहीं जाती। भास्कर ने सच के बहाने ही सही हथेली के दर्द को भी बयां कर दिया। बाजार- सत्ता- सिस्टम में बने रहने के लिए सच को अलग अलग अंदाज और तौर तरीकों से दिखाना जरूरी हो गया है। मीडिया हो या देश को चला रहे सत्ता के शीर्ष नेतृत्व का भाषण भी हाथ में जलते दीपक से शुरू होता है उजाला तो बाद में आता है। आज हालात यह बन चुके हैं कि हमें स्वयं जग जाहिर करने की इतनी क्यों जरूरत पड़ गईं। हर किसी की दृष्टि में हमारे गुण स्वयमेव दिख जाएंगे। फिर इतने परेशान क्यों है। फल लगने पर जैसे टहनियां झुक जाती हैं उसे बताने की जरूरत ही नहीं। सही मायनों में अगर सच को अपनी प्रशंसा करनी पड़ रही हे तो वह आत्महत्या के समान है। स्व-प्रशंसा और आत्ममुग्धता में लीन व्यक्ति हो या समाज कदापि उन्नति नहीं कर सकता। स्वयं अपनी प्रशंसा करना या दूसरों के मुख से प्रशंसा सुनने की इच्छा रखना- दोनों ही अपने अस्तित्व को अलग करना है। वेद पुराण समेत तमाम ग्रंथ गवाह है बेहतर इंसानों ने कभी स्वयं प्रशंसा नहीं की। हमारे द्वारा किया गया अच्छा काम स्वयं ही हमारी अच्छाइयों को रेखांकित करता है। मैंने इतने काम किए हैं तो इसमें हमारा अहंकार झलकने लगता है। लेकिन दुर्भाग्य से आत्म प्रंशसा ही आज सच की शक्ल में बाजार में इतरा रही है। इसलिए कौवे को अत्यंत सुंदर, मनमोहक, मनोहर बताकर गीदड़ उसके मुंह से रोटी गिराकर उसे ले जाने में सफल हो जाता है। इस सच को स्वीकार करना भी संपूर्ण सच है।

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