हमारी करतुतों से बिगड़े हालात, इल्जाम सावन पर, यह हरगिज नहीं चलेगा

-नमन करिए लता जी, जगजीत सिंह, रफी-किशोर साहब को जिसके गीतों ने सावन को डूबने से बचा रखा है।


WhatsApp Image 2023-06-25 at 10.19.09 PMरणघोष खास. प्रदीप नारायण

इस बार सावन गुस्से में आया या अपने अंदाज में। इसे समझना भी जरूरी है। बाजारू, मतलबी, लालची, पांखडी, धुर्त और अलग अलग नशों में धुत इंसान को सावन बाढ़, आफत, गटर में बहता पानी नजर आता है। करतुतों से पर्दाफाश नहीं हो जाए इसलिए बंद कमरों में, ड्राई फूड, लजीज पकवान और शानदार कॉफी या चाय की चुस्कियों के साथ चेहरे पर शातिर चिंता का नाटक करते हुए छुटटी के नाम पर स्कूली बच्चों को घर में दुबके रहने का फरमान जारी कर दिया जाता है। जवाबदेह अधिकारियों को भारी भरकम बजट के साथ सावन के शरीर से बहते पानी से नुरा कुश्ती (मिली भगत की कुश्ती, जो आपस में साज़बाज़ कर के दिखावे के लिए लड़ी जाये ) लड़ने के लिए भेज देता है।

यह सिलसिला कई सालों से लगातार चल रहा है। प्राकृतिक आपदाएं ओर कोरोना जैसी महामारी समय समय पर इंसान की औकात बताकर चली जाती है। मजाल सबक लिया हो। सिर के ऊपर से पानी गुजरने लगता है तो अपनी असलियत में आकर जिंदगी की भीख मांगने लगता है। सोचिए हर घटना के बाद क्या सबक ले पाए। अगर लेना होता तो कोरोना ही काफी था। घरों में बैठाकर मौत का नंगा तांडव दिखाकर इस महामारी ने जिंदगी के मायने बता दिए थे कि धन बल से घमंड में चूर इंसान की असल औकात क्या है। लॉकडाउन में पशु जानवर सड़कों पर आराम फरमा रहे थे। इंसान सहमा हुआ खिड़की से उन्हें अपनी लाखों करोड़ों रुपए की बाहर खड़ी गाड़ियों पर मूत्र विसर्जन करते हुए देख रहा था। यहीं तो कुदरत के अपने फैसले हैं जो इंसान को इंसान बनाने का अहसास कराने आते हैं। जिससे सबक लेकर खुद की जवाबदेही तय करने की बजाय आज का बाजारू इंसान धार्मिक स्थलों पर तरह तरह की दुकान खोलकर बैठे ढोंगी व पांखड़ी धर्म के सौदागरों की शरण में पहुंच जाता है। दंडवत होकर चढ़ावा चढ़ाकर जिंदगी में खुशहाली  के फार्मूले खरीदता नजर आता है। इसलिए गौर से देखिए धार्मिक स्थलों पर भक्ति, अराधना और साधना के नाम पर डीजे के भारी भरकम शोर और तरह तरह के सड़क छाप गानों पर झूमते झुंड ब्यूटी पार्लर वाली सुंदरता की शक्ल में धर्म के बाजार का विस्तार करते नजर आएंगे।  

नमन करिए लता जी, जगजीत सिंह, रफी-किशोर साहब को जिसके गीतों ने सावन  को डूबने से बचा रखा है 

सावन जब अपनी पूरी मस्ती में होता है तो प्रकृति खिलखिला उठती है। बेहतर- सच्चा इंसान झूमने लगता है। जीवन संगीतमय हो जाता है। इसलिए तो गजल सम्राट जगजीत सिंह का यह गीत हमें बचपन में ले जाकर छोड़ देता है।  ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे, मेरी जवानी मगर, मुझको लौटा दो, बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी। जब जब इंसान ने प्रकृति को गले लगाया वह गीत संगीत के रास्ते आनंद के सागर में डुबकी लगाता नजर आया। यह सावन का ही तो कमाल है कि जिस पर बनी फिल्म प्यासा सावन में संतोष आनंद का लिखा, लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल के संगीत व लता जी-सुरेश वाडकर की आवाज में नहाया गीत   मेघा रे, मेघा रे, मत परदेस जा रे, आज तू प्रेम का संदेस बरसा रे। स्वर कानों पर पड़ते ही शरीर का एक अंग अंग खिलखिला उठता है। फिल्म मंजिल में योगेश का लिखा, किशोर व लता जी का गाया, राहुल देव बर्मन के संगीत  में फिरोया गीत  रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन। इन अमर और सदा बहार गीतों का कमाल देखिए इसका आनंद भी वहीं ले सकता  है जिसे सावन से बेपन्नाह मोहब्बत है। इस मौसम में इंसान की दो तरह की नस्लें नजर आती है। एक वो जिसके लिए सावन बरसता पानी है जो जमीन पर गिरते ही अलग अलग चेहरों में आफत दिखती है। दूसरे वे जो सावन का नाम सुनते ही मोर की तरह नाचने व कोयल की आवाज में  गुनगाने लगते हैं। सुध बुध खो सावन की एक एक बूंद को खुद में समा लेने के लिए घरों की छतों पर, खेत खलियान में भागते चिल्लाते, मस्ती करते नजर आते हैं। वे सावन की अगन में खुबसूरत हुई प्रकृति की गोद में समा जाना चाहते हैं। दुर्भाग्य देखिए आज का बाजारू मीडिया सावन को भी डर की तरह दिखाकर, टीआरपी के नाम पर बेचकर अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है।

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