मौजूदा हालात में देखे तो बिहार में लालू एवं सब्जी में आलू इतरा रहे हैं। लंबे समय बाद इनका वक्त भी आया है। खैर यह शब्दों की जुगलबंदी है। मसला गंभीर है मुद्दे पर आते हैं। महंगाई के कारण सरकार के प्रति लोगोंमें गुस्सा है और समय-समय पर वे अपना आक्रोश जताते भी हैं। सोचिए कि मात्र 100 रुपए से भी कम प्रतिदिन की आय पर गुजारा करने वाले देश के 83 करोड़ लोग अपना पेट कैसे भरते होंगे। जाहिर है कि इन तमाम लोगों को शायद एक टाइम तो भूखा ही रहना पड़ता होगा। दिल्ली में साधारण-सी दुकानों में भी चाय का एक कप 10 से 7 रुपए से कम पर नहीं मिलता। किसी भी दाल की कीमत 100 रुपए प्रति किलो से कम नहीं। अब तो आलू और प्याज की कीमतें भी बढ़ गई हैं। ऐसे में एक औसत अनुमान के हिसाब से 100 रुपए रोज कमाने वाला देश का एक बड़ा गरीब वर्ग सिवाय रोटी या चावल के और क्या खा सकता है? हमारे बाजार की यह खास बात है कि बाजार में एक बार खुदरा कीमतें बढ़ने के बाद वे भरसक इस कोशिश में लगे रहते हैं कि दाम कम न हों। मसलन क्या दूध और घी के दाम कभी कम हुए हैं? दूसरा जनता को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ने के कारण लोग ज्यादा प्रोटीन लेने लगे हैं, इसलिए माँग की तुलना में सप्लाई कम हुई है। यह कुछ वैसा ही तर्क है, जो अमेरिका आदि पश्चिमी देश देते हैं कि भारत और चीन में लोग पहले की तुलना में ज्यादा खाने लगे हैं, इसलिए महँगाई बढ़ रही है, पर सवाल सामान की बाजार में उपलब्धता का, उसकी सप्लाई का है, जिसे प्रभावित कर कीमतें बढ़ाई जाती हैं लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के बाद से आज तक इसका सही इलाज नहीं हो पाया है।