छात्रों की मौत शिक्षा तंत्र को निवस्त्र कर रही है… कोई है जो बचाए..
— शिकारी की शक्ल में नजर आते शिक्षकों के लिए शिष्य अब शिकार बनते जा रहे है।
–संसार में न कोई सफलता है न कोई विफलता- केवल सीख ही सीख है। विश्वास कीजिए, कल एक नया सूर्य उगेगा। बस, सुबह जल्दी उठिएगा।
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
कवि कुमार विश्वास की चार लाइनों को शैक्षणिक संस्थानों की दीवारों पर लिखवा दीजिए। प्रार्थना सभा में प्रतिदिन नंबर वाइज शिक्षकों की जुबान से अखंड प्रतिज्ञा के साथ दोहरा दीजिए। अहसास करा दीजिए एक पुल गलत बन जाए तो दुर्घटना के साथ जनहानि होती है। कुछ लोग मर जाते हैं दुख की बात है। एक बेईमान चालाकी से डॉक्टर बन जाए तो जीवन भर 100-200 लोगों को समय से पहले यमराज तक पहुंचाने की व्यवस्था कर देता है। लेकिन एक शिक्षक गलत बन जाए या केवल यह सोचे कि वह वेतन के लिए काम कर रहा है। अपना काम ठीक से नहीं कर रहा है। यकीन मानिए वह ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर रहा होता है जिसमें समाज- राष्ट्र आगे जा सकता है या बहुत पीछे चला जाएगा।
राजस्थान कोटा में कोचिंग कर रहे तीन छात्रों ने खुद को मारकर मौजूदा शिक्षा तंत्र को एक बार फिर निवस्त्र कर दिया। इस घटना में छात्र नहीं मरे वे माता-पिता और गुरुजन रोज मरेंगे जिन्होंने बच्चों को बेहतर इंसान बनाने की बजाय अपने स्वार्थ के चलते उन्हें प्रोडेक्ट की तरह तैयार करना शुरू कर दिया जो डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अधिकारियों की शक्ल में नजर आए। इन मासूमों के हाड़- मांस वाले शरीर में इंसानी सोच महज अवशेष की तरह नजर आती है। शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा झूठ नंबरों की काली कोठरी से निकली फेस-पास- मैरिट की वह विकृत मानसिकता है जिसने शिक्षा के सिस्टम को पूरी तरह खोखला व बदसूरत कर दिया है। जिसे सुंदर दिखाने का ठेका ब्यूटी पार्लर की तरह खुले कोचिंग सेंटरों ने लिया हुआ है। जिसे चलाने वाले शिक्षक कम शिकारी ज्यादा नजर आते है जिनके पास आने वाला शिष्य एक शिकार की तरह होता है।
मौजूदा स्थिति से सामना करना है तो दैनिक भास्कर में ग्रुप एडीटर रहे स्व. कल्पेश याज्ञनिक जी के इस लेख को हर माता- पिता एवं शिक्षक बच्चों के साथ बार बार पढ़े, मंथन करें।
कल्पेश जी अपनी कलम से लिखते हैं…..
मैं फेल नहीं हुआ। मैंने तो ऐसे करीब दस हजार तरीके आजमाए – जो कारगर न रहे।’ थॉमस अल्वा एडिसन, बल्ब बनाने से पहले उन्होंनेकोई दस हजार प्रयोग किए – विफल होते रहे। इसे क्या कहेंगे।
यदि आप फेल हो गए हैं– तो ‘कुछ अलग’ करने वालों की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। बल्कि, कुछ करने नहीं। कुछ ‘कर गुज़रने’ वालों की सूची में। कैसे? समूचा संसार विफलता से ही बना है। हर महान् काम का आधार विफलता ही है। हर ‘अलग’ बल्कि हरेक ‘नया, ज्यादा और अलग’ उन्हीं लोगों ने किया है जो तब तक फेल होते रहे, होते रहे, होते रहे – जब तक कि पास न हो गए! और विफलता तो सफलता की पहली सीढ़ी है– यह समझने वाले ही समाज को कुछ दे गए। हर विद्यार्थी को श्रीनिवास रामानुजन को पढ़ना, हर परीक्षा से पहले जरूरी है। महानतम् रामानुजन विश्व में गणित के पर्याय बने। हर कक्षा में, हर बार फेल हो जाते। गणित की धड़कन से दिल धड़कता। शरीर में मानो लहू नहीं अंक बहते। जीवन के जोड़, बाकी रह जाते। परीक्षा के समीकरण समझ नहीं पाते। गणित के अलावा सभी में शून्य ही पाते। और फिर परीक्षाओं के परे, कहीं आगे, उन्होंने स्वयं को गढ़ लिया। परीक्षाओं को फेल घोषित कर दिया। न्यूटन से लेकर स्टीवन स्पीलबर्ग तक सभी की यही सफलता रही– कि उनके रिज़ल्ट का अर्थ ही था फेल!
इन हस्तियों को छोड़िए। यदि आप विफल हो गए हैं तो आपसे अधिक नैराश्य में डूबा कोई दूसरा नहीं होगा। ऐसा आप मान रहे हैं। जान लीजिए कि बाकी की स्थिति क्या है। ठीक आप के जैसी। विश्वास नहीं होता। किन्तु यही सच है। जिन्हें 90% अंक मिले हैं – वे नैराश्य में डूब गए हैं कि 95% नहीं आए। जिनके 95% हैं उनका दर्द तो सबसे बड़ा है– 100 नहीं आए। डीयू यानी दिल्ली यूनिवर्सिटी में 99.5% वाले श्रेष्ठ बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाया था। उन्हें भी नहीं
मिलेगा। जो महज पास हो गए हैं– उन्हें डिविज़न का, ऊंची ग्रेड का मलाल है। जो एक विषय में रुक गए हैं, उनका रुदन पास न होने का है। परीक्षा–परिणाम का अर्थ ही है– नैराश्य। थिज़ारस में अन्य समानार्थी शब्द हैं – विफलता। बेबसी। क्रोध। कुंठा। आदि। इसलिए आपकी पीड़ा, बाकी से अधिक नहीं है।
किन्तु बाकी कम से कम पास तो हो गए हैं। हमारा तो साल बिगड़ गया है। एक साल। सभी कह रहे हैं – जानते हैं न एक साल बिगड़ना किसे कहते हैं? दो साल पिछड़ना। सब आगे बढ़ जाएंगे। किसे, कैसे मुंह दिखाएंगे?
पहले जानना जरूरी होगा कि विफल होना कितना पीछे धकेल रहा है।
ध्यान से देखिए। किसी भी परीक्षा में विफल होने का अर्थ यूं तो ‘साल बिगड़ना’ ही है। किन्तु यूं तो बहुत सामान्य भी है। इतना साधारण जैसे :
-आप ट्रेन चूक गए, दोस्त चले गए
– आप अपने दोस्तों के साथ खेला एक मैच हार गए
– आप किसी डांस शो के लिए नहीं चुने गए
– आपका कोई खास एसएमएस पहुंचा ही नहीं
– या कि आपका कोई मेल, कोई राय, कोई लेख किसी संपादक ने खारिज कर दिया
इतना ही मामूली है परीक्षा में फेल होना। बस, एक बार ऐसा सोचकर देखिए तो।
एक बहुत ही प्रेरक वीडियो यू ट्यूब पर देखने के बाद हमारे कुछ पत्रकार साथियों में इस पर तीखी बहस हुई। एक व्यावहारिक प्रश्न सामने बना रहा कि जो फेल होता है– वही उसका दर्द जानता है। वो जो पहली खबर आती है। वो जो मैसेज दिखता है। वो जो फोन बजता है। वो जो तत्काल पूछताछ शुरू होती है। इन सबके सामने एक दुख का पहाड़ खड़ा हो जाता है। बातों से, उदाहरणों से रोना नहीं रुकता। क्रोध और भड़कता है। और ज्यादा रोना आता है। तो क्या करें?
जैसा दो दिन पहले मध्यप्रदेश में हुआ– वैसा होने दें – उसे प्रेरणा मान लें। या कि बना दें? एक रिज़ल्ट के बाद, चौबीस घंटे के भीतर 12 बच्चों ने आत्महत्या कर ली। 21वीं सदी में भी यदि परीक्षा की विफलता का ऐसा असर है तो सारा समाज ही विफल है। सारी सभ्यता विफल है।
सारी शिक्षा विफल है। सभी परीक्षाएं विफल हैं। सभी परिणाम विफल हैं। निष्फल हैं। ऐसी सफल पीढ़ी– सक्सेसफुल जनरेशन – हमें नहीं चाहिए। हमें सार्थक पीढ़ी चाहिए– मीनिंगफुल जनरेशन। रोना उन विद्यार्थियों को नहीं, हम सभी को आना चाहिए। रोने पर एक बात। सभी उन छात्रों के लिए जिन्हें लगता है उनका परिणाम आशा के अनुरूप नहीं आया। उन्हें ऐसा करना बहुत ताकत देगा :
1. भीतर ही भीतर घुटने की ग़लती न करें, खूब रो लें।महानतम संगीतकार बीथोवन ऐसा ही करते थे। उनकी कुंठा की कल्पना कीजिए – वे सर्वश्रेष्ठ संगीत रचते थे। किन्तु स्वयं सुन नहीं सकते थे। बहरे हो गए थे। आप तो सब कुछ सुन सकते हैं!
2. परिवार से खुलकर बात करें, रोते जाएं पर बात करते जाएं।
महान् अब्राहम लिंकन। विफल होते जाते। रोते जाते। प्रियजन से बात करते जाते। जब मंगेतर चल बसी – तो कोई बात सुनने वाला तक न बचा – नर्वस ब्रेकडाउन हो गया। सारा जीवन ही फेल। दो बार नौकरी से बर्खास्त। तीन बार पारिवारिक विफलताएं। दो बार व्यापार में विफल।
12 चुनाव हारे। हर बार और बड़े पद के लिए लड़ते। अंतत: महान् चिंतकों में नाम। अमेरिका के राष्ट्रपति।
3. किसी से कुछ छुपाने की कोई ज़रुरत नहीं है। क्योंकि परिवार के अलावा आपकी जिंदगी में किसी का कोई योगदान नहीं है। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर। शुरुआत में ही स्कूल में विफल। सारे नातेदार, आसपास के लोग खिल्ली उड़ाते। क्योंकि महर्षि देवेंद्रनाथ के उद्भट विद्वानों के परिवार में शिक्षा में विफल और पढ़ाई से विमुख होना असंभव सा लगता था। किन्तु वे किसी से कुछ न छुपाते। खुलकर कहते कि कक्षा की पढ़ाई उन्हें बांध देती है। नहीं ही पढ़ेंगे।
4. अपना प्रिय संगीत सुनते रहें, या प्रिय किताब पढ़ते रहें या प्रिय टीवी शो/सिनेमा देखते रहें। जुरासिक पार्क से लेकर ‘लिंकन’ जैसी महान, कालजयी फिल्मों के निर्माता–निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग का यही तरीका है। वे जूनियर हाई स्कूल में फेल हो गए। फिर बर्खास्त कर दिए गए। फिर कोशिश की तो ‘सीखने में अक्षम’ बच्चों की एक अलग कक्षा में बिठाया गया। फिर फेल हो गए। फिर कभी स्कूल गए ही नहीं। विफलता को अपना लिया।
5. आपका जिस भी काम में मन लगता हो, जो कुछ करने को आपका दिल करता हो – वही और सिर्फ वही करना शुरू कर दीजिए। जिन कार्टून किरदारों से आपकी पांच पीढ़ियां; हंसना–बोलना–खेलना–खिलना–बढ़ना और खिलखिलाना सीखती आई हैं– उनके जनक वॉल्ट डिज्ऩी ऐसा ही कहते थे। एक अखबार में पत्रकार थे वे। संपादक ने बर्खास्त कर दिया था। यह कहकर कि ‘आपके पास कल्पनाशक्ति नहीं है। और न ही कोई रोचक आइडिया!’ संपादक जो ठहरे! ऐसा न करते तो क्या दुनिया डिज्ऩीलैंड बन पाती? किन्तु ऐसा तब संभव हुआ जब उन्होंने अपनी ओर से संपादक को बर्खास्त कर दिया।
परीक्षा परिणामों में विफलता से हम निराश न हों, यह असंभव है। किन्तु विफलता को गले लगाना ही होगा। क्योंकि संसार में न कोई सफलता है न कोई विफलता– केवल सीख ही सीख है। एक सच्च दोस्त तलाशना होगा। जिससे मन की बात कह सकें। सफलता–विफलता की। एक साथ। जैसा कि पंचतंत्र में कहा गया है– सूर्य, उदय और अस्त होते समय लाल ही रहता है। वैसे ही सच्च इंसान सुख–दुख में एक जैसा ही रहता है। रहना चाहिए। विश्वास कीजिए, कल एक नया सूर्य उगेगा। बस, सुबह जल्दी उठिएगा।