हिन्दुत्व में छिपे भ्रम को खत्म करना होगा तभी असली हिंदुस्तान नजर आएगा

यह सवाल इसलिए अहम है कि देश की आजादी के बाद से आज तक लगभग सभी  राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए मध्यवर्गीय भारत के बड़े हिस्से में धर्म व जाति  के जो बीज बोए हैं, उसकी फसल हम अब काटने को मजबूर हैं.


रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से
आज यह सवाल इसलिए अहम है कि देश की आजादी के बाद से आज तक राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए खासतौर से मध्यवर्गीय भारत के बड़े हिस्से में धर्म व जाति के जो बीज बोए हैं, उसकी फसल हम अब काटने को मजबूर हैं. वैसे हिन्दुत्व और इस्लाम के इस रिश्ते पर कम से कम दो भ्रम पैदा होते हैं. पहला तो यह कि हिन्दुस्तान का मसला बस दो पहचानों – हिन्दुत्व और इस्लाम का मसला है. हिन्दुत्व इतना सहनशील है कि उसकी वजह से इस्लाम को भी यहां जगह मिल गई है. लेकिन क्या हिन्दुत्व के भीतर अपनी समस्याएं नहीं हैं…? क्या हिन्दुत्व को जातियों ने इस बुरी तरह विभाजित नहीं कर रखा है कि उसकी अलग से कोई पहचान ही नहीं बची है…? हिन्दुत्व और संविधान की बात करते हुए जिस अम्बेडकर को याद कर रहे थे, हिन्दुत्व के बारे में उन्हीं की राय पढ़ लेते, तो अपने समाज के अंतर्विरोध को पहचानने में उन्हें कुछ आसानी होती. अम्बेडकर ने साफ कहा था कि जातियों के बिना हिन्दुत्व कुछ नहीं है – हिन्दू तभी एक होता है, जब उसे एक धर्म विशेष का विरोध करना होता है.यह बात माननी होगी कि सैद्धांतिक तौर पर अधिकांश राजनीतिक दल हमेशा से जाति-प्रथा को तोड़ने के हक़ में रहा है. उनके भाषणों में यह बात बार-बार दोहराई जाती है, लेकिन दिलचस्प यह है कि जाति तोड़ने की जो कोशिश सामाजिक स्तर पर की जानी चाहिए, उसमें नेताओं ने कभी दिलचस्पी नहीं ली. लोहिया कहा करते थे कि जाति तब टूटेगी, जब जातियों के बीच रोटी और बेटी का नाता जुड़ेगा. अब भी हिन्दू समाज अपनी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा शादियां जातियां ही नहीं, उपजातियां तक देखकर करता है. शादी में जो बात बहुत प्रत्यक्ष है, वह दूसरे क्षेत्रों में परोक्ष तौर पर लागू है – मसलन, नौकरी, रोज़गार या बाकी सामाजिक संबंधों में जातिगत पहचान अब भी एक अहम भूमिका अदा करती है.
यह सच है कि भारत हिन्दू बहुल देश है. सदियों से हिन्दू परंपराओं के बीच इसका अपना एक सामाजिक संस्कार विकसित हुआ है. लेकिन इस हिन्दू परंपरा के बीच एक हज़ार साल से इस्लामी संस्कृति का पानी भी मिलता रहा है. आज का हिन्दुस्तान अपने खाने-पीने, बोली-बानी-रहने-पहनने के ढंग में इस साझा संस्कृति की देन है. भारत के इतिहास से इन हज़ार वर्षों को निकाल दिया जाए – या अगर रखा जाए, तो इस इतिहास के इस्लामी प्रतिनिधियों को दुश्मन या आततायी या बाहरी लोगों की तरह पेश किया जाए तो वह भी पूरी तरह तर्कसंगत नहीं होगा। मूल बात यह है कि जो लोग हज़ार साल से किसी देश का हिस्सा होते हैं, वे बाहरी नहीं होते. इस समझ के लिए इतिहास पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, बस आंख और कान खोलकर अपने चारों तरफ देखने-सुनने की ज़रूरत है. आज हम जो हिन्दी बोलते हैं, उसमें अरबी-फ़ारसी के शब्दों को हटा दें तो इसे बोलना मुश्किल हो जाएगा और समझना असंभव. जो बहुत सारे कपड़े हम पहनते हैं, वे भी इसी साझा सभ्यता की देन हैं. जिसे हम भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य कहते हैं, उसमें बहुत सारा कुछ इन हज़ार वर्षों में ही जुड़ा है. आप अमीर खुसरो को हटा कर भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते. सिनेमा भले पश्चिम से आया है, लेकिन गीत-नृत्य से सजी जो हिन्दी फिल्में देखने के हम आदी हो चुके हैं, उसकी परंपरा वाजिद अली शाह की इन्नरसभा और बाद के दौर के पारसी थिएटर की कोख से ही निकली है. बेशक, इसका उल्टा भी सच है. जिसे भारत का इस्लाम कहते हैं, उसमें भारत की हिन्दू संस्कृति ने भी बहुत कुछ जोड़ा है. इस्लामी त्योहारों की जो रंगीनी है, उसमें भारत की अपनी ख़ुशबू है.
लेकिन असली बात इस भारत को पहचानना और इसे स्वाभाविक ढंग से विकसित होने देना है. असल में नेताओं को यह समझ में आता है कि हिन्दुत्व उसकी दी हुई परिभाषाओं से काफ़ी बड़ा है – वह अपनी संकीर्णताओं को इस हिन्दुत्व की ओट में छिपाना और चुपचाप हिन्दुत्व का अपना भाष्य थोपना चाहता है. अगर नहीं, तो हिन्दुत्व की विचारधारा की परिभाषा बताने से पहले अपने लोगों को समझाना होगा कि वे इसके अनुरूप आचरण करें, ताकि न हिन्दुत्व किसी को छोटा लगे और न राम किसी को पराए लगें.

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