रणघोष खास. प्रदीप हरीश नारायण
हरियाणा विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने समझदारी दिखाई। आगे पीछे सरकारी अवकाश की भरमार के चलते मतदान का समय एक से बढ़ाकर पांच अक्टूबर कर दिया। नही तो देश से ज्यादा अपनी रईसी पर इतराने वाले परिवार- दोस्तों के साथ घूमने भ्रमण पर निकल जाते। वैसे भी यह अब नई बात नही है। अभी भी 30 से 40 प्रतिशत लोग वोट नही डाल रहे है, लेकिन देश प्रदेश के बुरे हालातों का बखान करने में सबसे आगे मिलते हैं। चुनाव में कम होते मतदान ओर खत्म होते भरोसे की जड़ को पकड़ने के लिए जो हकीकत सामने आ रही है। उसे स्वीकार करने में कोई हिचक नही होनी चाहिए।
अब चुनाव में नेता सही मायनों में शिकारी, वोटर बेबस- पीड़ित भिखारी ओर इन दोनों के बीच सूचनाओं का सूत्रधार मीडिया कुत्ते की हडडी बन जाता है। मिलने पर पूंछ हिलाता ओर नही मिलने से गुर्राता नजर आता है। अब तो नेता- मतदाता ओर मीडिया में अब इतनी जबरदस्त समझ बन गई है की सबकुछ एक दूसरे की असलियत जानते हुए भी एक दूसरे के सम्मान में बखान करने में कोई कसर नही छोड़ते। लंबे समय से राज करते आ रहे नेताओं को हर बार पांच साल ओर चाहिए ताकि अपने औलादों को स्थापित कर दे। जिन्हें सत्ता नही मिली वे इसलिए दिन रात एक कर रहे हैं ताकि मौका लगते ही पीछे तक की सारी गर्दिश खत्म कर डाले। इसलिए वे शिकारी की तरह सांझ ढलते ही ऐसे वोटरों के घरों में पहुंच जाते हैं जहां बेबसी ओर लालच में तड़फड़ा रहे वोटरों के कंठ में शराब और जेब नोटों से भर जाए। दिन के समय यही शिकारी समाज को जाति- धर्म के नाम पर बांटने का खेल करते हैं। इनके आगे पीछे अलग अलग चेहरों में दुम हिलाते मीडिया का चरित्र कुत्ते की हडडी बन जाता है। जिसे फैंककर ये शिकारी उसे अपने काबू में कर लेते हैं। यह हडडी पैकेज या विज्ञापन की शक्ल में होती है। नही मिलने पर यही मीडिया 24 घंटे भौंकता ओर पागलों की तरह काटता नजर आता है। इसमें इसकी कोई गलती नही है। इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, आमजन की आवाज बताकर इसके किरदार को शुरूआत से ही गलत पेश किया जा रहा है। असलियत में यह सूचनाओं का व्यवसाय है जिसे चलाने के लिए अर्थतंत्र जरूरी है। क्या बिना वेतन के शिक्षक पढ़ा सकता है, बिना फीस के स्कूल चल सकते हैं, बिना फीस के डॉक्टर मरीज की जांच कर सकता है। बिना फीस के वकील केस लड़ सकता है। बिना चढ़ावे के मंदिर ओर पुजारी के रोज दर्शन हो सकते हैं। यह संभव ही नही है। इसके बावजूद शिक्षक को भगवान से बड़ा मानना, डॉक्टर को धरती का भगवान कहना और अच्छा खासा चढ़ावा लेकर तमाम सुविधाओं को भोगने वालों को धार्मिक गुरु मानकर उनके चरणों में पड़े रहने प्रवृति जग जाहिर हैं। इसलिए यह तब तक चलता रहेगा जब तक हम सभी खुद के प्रति ईमानदार ओर जवाबदेह नही बन जाए।