भारत की जेलों में जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ जंग लड़ने वाली ये लड़कियां

 सुप्रीम कोर्ट ने भी दी शाबाशी


रणघोष खास. आशय येडगे, साभार बीबीसी 

सुप्रीम कोर्ट ने बीते तीन अक्टूबर को एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था. इस फ़ैसले में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को जेल के अंदर व्याप्त जातिगत भेदभाव ख़त्म करने का निर्देश दिया गया है. इस फ़ैसले को सुनाते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने महिला पत्रकार सुकन्या शांता की तारीफ़ करते हुए कहा, “सुकन्या शांता मैडम, आपके शोधपूर्ण लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. आपके लेख से ही इस मामले की सुनवाई की शुरुआत हुई. पता नहीं इस लेख के बाद हक़ीक़त कितनी बदली होगी, लेकिन हमें उम्मीद है कि इस फ़ैसले से हालात बेहतर होंगे.”

“जब लोग लेख लिखते हैं, शोध करते हैं और मामलों को अदालतों के सामने इस तरह लाते हैं कि समाज की वास्तविकता दिखा सकें, तो हम इन समस्याओं का निदान कर सकते हैं. ये सभी प्रक्रियाएं क़ानून की ताक़त को रेखांकित करती हैं.”सुकन्या शांता ‘द वायर’ डिज़िटल प्लेटफॉर्म के लिए काम करती रही हैं. उन्होंने भारत के विभिन्न राज्यों की जेलों में जाति-आधारित भेदभाव पर रिपोर्टिंग की एक सीरीज़ की है.इस सीरीज़ में उन्होंने क़ैदियों को जाति के आधार पर दिए जाने वाले काम और जाति के आधार पर क़ैदियों के साथ भेदभाव जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया.रिपोर्टों की सिरीज़ प्रकाशित होने के बाद राजस्थान हाई कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए राजस्थान की जेलों के लिए बनाए गए नियमों में बदलाव करने का आदेश दिया.इस सकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद सुकन्या शांता ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के लिए वकील दिशा वाडेकर से चर्चा की और इसके बाद महाराष्ट्र की इन दो महिलाओं की कोशिशों से सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आया है.सुप्रीम कोर्ट ने तीन अक्टूबर, 2024 को जेलों में क़ैदियों के ख़िलाफ़ जातिगत भेदभाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को अपने नियमों में संशोधन करने का आदेश दिया है. इसके अलावा, देश भर की जेलों में बंद जनजातीय समुदाय के क़ैदियों के लिए भी विशेष आदेश जारी किए गए हैं ताकि औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से उनके ख़िलाफ़ चले आ रहे भेदभाव को दूर किया जा सके.31 अगस्त, 1952 तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जनजातीय समुदाय के क़ैदियों को आपराधिक आरोपों से मुक्त करने का फ़ैसला किया था.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला ऐतिहासिक माना जा रहा है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने इन जनजातियों के बारे में इतनी विस्तार से टिप्पणी की है. इस ऐतिहासिक फ़ैसले की असली सूत्रधार रहीं पत्रकार सुकन्या शांता और वकील दिशा वाडेकर ने बीबीसी मराठी से ख़ास बातचीत की.

जेल समाज का आईना

‘द वायर’ की पत्रकार सुकन्या शांता ने जेलों में जातिगत भेदभाव को अपने लेख शृंखला का केंद्रीय मुद्दा बनाया पत्रकार सुकन्या शांता ने कहा, “जेल समाज का आईना है. इसलिए समाज में देखा जाने वाला जातिगत भेदभाव अगर जेल में हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. मैं क़ानून की छात्रा थी और पढ़ाई के दौरान मुझे कई बार जेल को देखने को समय मिला.” “पत्रकारों के लिए जेल जाना मुश्किल हो सकता है, लेकिन क़ानून की पढ़ाई करने की वजह से मुझे यह मौक़ा मिला. दूसरी ओर, एक पत्रकार के रूप में, मैंने जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ लिखना जारी रखा. पत्रकारिता और क़ानून की शिक्षा ने मुझे यह समझने में मदद दी कि जेल के माहौल में भेदभाव होता है.” सुकन्या ने यह भी बताया, “द वायर के लिए हमने जो सीरीज़ बनाई थी, उसमें ‘जाति और जेल’ एक विषय के रूप में थी. मैं यह दिखाना चाहती थी कि जेलों में जाति व्यवस्था कब लागू होती है. मैंने जेल नियमों का अध्ययन करके वहां की जाति व्यवस्था को समझने की कोशिश की.”उनके अनुसार, “संवैधानिक रूप से, जेलें राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी हैं. इसलिए राज्य सरकार तय करती है कि जेल में क्या नियम होने चाहिए? क़ैदी जेल में कहाँ रहेंगे? कहां सोने जाएंगे? ये सब नियम हैं, लेकिन ये नियम क़ैदियों को नहीं बताए जाते ताकि उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता न चले.”

सुकन्या ने कहा, “मैंने विभिन्न राज्यों की जेलों के नियम एकत्र किए, उनका अध्ययन किया. अध्ययन के दौरान पता चला कि जेलों में क़ैदियों की जाति का उल्लेख होता है. उनकी जाति के मुताबिक़ कैदियों के जेल में काम करने का फ़ैसला होता है. यह जेल नियमों में लिखा है, वास्तव में मैंने यह जानने के लिए क़ैदियों से बात की.”

‘जाति के कारण शौचालय साफ़ करने को कहा गया’

जेल में क़ैदियों के अनुभवों पर सुकन्या ने बताया, “इस लेख के लिए मैंने एक 19-20 साल के युवक से बात की. वह बिहार का रहने वाला था और काम करने के लिए राजस्थान चला गया था. वह आईटीआई से डिप्लोमा कर चुका था. जेल जाने से पहले वह एक इलेक्ट्रीशियन के तौर पर काम कर रहा था.”

“वह एक छोटी वर्कशॉप में काम कर रहा था, वहां चोरी की एक घटना हुई थी. इसलिए उस वर्कशॉप के मालिक ने वहां काम करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. फिर लड़के को हिरासत में ले लिया गया. लड़के का उस मामले से कोई लेना-देना नहीं था. दुर्भाग्य से, उसे गिरफ़्तार कर लिया गया.”

सुकन्या ने इस मामले के बारे में बताया, “जेल में प्रवेश करते ही क़ैदी से उसकी जाति पूछी जाती है. इस लड़के से भी उसकी जाति पूछी गई और उसने बता दी. दरअसल, राजस्थान में उस जाति की आबादी नहीं है. फिर उससे श्रेणी पूछी गई और उसने बताया कि वह अनुसूचित जाति में आता है, जिसके बाद उसे सफ़ाई का काम दिया गया.””शुरुआत में, उन्हें एहसास नहीं हुआ कि उन्हें उनकी जाति के कारण नौकरी दी गई थी. उसने बताया कि उसे लगा कि यह वही सज़ा होगी जो नए क़ैदियों को दी जाती है.”

सुकन्या ने कहा, “धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि वह जो काम कर रहा था और जो लोग उसके साथ सफ़ाई कर रहे थे, वे भी अनुसूचित जाति से थे. एक दिन जेल में सेप्टिक टैंक टूट गया. फिर उसे शौचालय का सेप्टिक टैंक साफ़ करने को कहा गया. लड़के ने पहले कभी ऐसा नहीं किया था. जेल जाने से पहले वह इलेक्ट्रीशियन का काम करता था इसलिए उसे यह भी नहीं पता था कि उस टैंक में क्या करना है. वह ऐसा काम दिए जाने से सदमे में था.””उसे तीन या चार महीने बाद जेल से रिहा कर दिया गया. जब मैंने उससे बात की, तो रिहाई के बाद दो या तीन साल हो गए थे. फिर भी, जब उसने अपना अनुभव सुनाया तो वह बहुत भावुक था. यह सिर्फ़ एक कैदी का नहीं बल्कि दलित क़ैदियों का अनुभव था.””वैसे इस फ़ैसले में एक ऐसा आदेश भी पारित हुआ है, जिसमें आने वाले दिनों में सुधार की उम्मीद अभी से की जाने लगी है. यह जेल रजिस्टर से जाति का उल्लेख हटाने का आदेश है. इससे जेल में जातिगत क़ैदियों की संख्या का पता नहीं चलेगा, लेकिन इस फ़ैसले से भविष्य में सुधार की उम्मीद है.”

”दूसरे राज्यों में नहीं बदली थी स्थिति”

याचिकाकर्ता सुकन्या शांता की सुप्रीम कोर्ट में वकील दिशा वाडेकर ने कहा, “यह एक रणनीतिक मामला था. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सुकन्या हमारे पास मामला लेकर आईं और हमने तुरंत इसे सुप्रीम कोर्ट में दायर कर दिया.”

वो कहती हैं, “सुकन्या की सीरीज़ को प्रकाशित हुए काफ़ी समय हो गया था. हमें लगा कि इस मुद्दे पर ख़बर प्रकाशित होने के बाद काफ़ी सकारात्मक बदलाव आ सकता है. हमें उम्मीद थी कि लोग इसे पढ़कर चौंक जाएंगे. जेलों में नियमों में बदलाव हो रहा था. लेकिन भारतीय समाज में क़ैदियों के लिए जो नियम बनाए गए थे, उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ.” दिशा वाडेकर ने बताया, ”राजस्थान हाई कोर्ट ने नोटिस लिया लेकिन अन्य राज्यों में स्थिति नहीं बदली है. अब चूंकि जेल राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है, इसलिए हमारे सामने हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाने की दुविधा थी. चूंकि यह 18-20 राज्यों का मामला है, हमने बहुत सोच-समझकर और रणनीतिक तरीक़े से सुप्रीम कोर्ट जाने का फ़ैसला किया.” दिशा वाडेकर ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी. सुकन्या के लेखों और समाचारों में जातिगत भेदभाव का उल्लेख किया गया था. हमने यह भी जांच की कि खानाबदोश जनजातियों के क़ैदियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है.”

“हमने जो शोध किया, उसमें कुछ बेहद चौंकाने वाली बातें सामने आईं. उदाहरण के लिए, ‘आदतन अपराधी’ शब्द का इस्तेमाल अक्सर क़ानून में किया जाता है. कुछ राज्यों के जेल नियमों में कहा गया था कि ‘एक विशेष जनजाति के लोग ‘आदतन अपराधी हैं. इसलिए इस जनजाति के क़ैदियों को अन्य क़ैदियों से अलग रखने का प्रावधान था.’