-एक खबर तलाश लाइए जिसमें सभी दलों के नेता एक ही मंच पर इस महामारी से लड़ते हुए नजर आए हो। उल्टा अपने हितों के लिए जनता की जान को जोखिम में डालने में सभी हदों को पार करते जा रहे हैं। अपने आकाओं को खुश करने के लिए अनाप शनाप झूठी बयानबाजी देना, छोटे- बड़े चुनाव एवं धार्मिक आयोजन कराने समेत अनेक तरह का पांखड- नाटक् हम देख रहे हैं।
गौर से देखिए, ध्यान से पढ़िए। मौजूदा हालात में हमारे नेता किस किरदार में नजर आ रहे हैं। जो सत्ता में हैं वे सिस्टम को अपने कब्जे में लेकर यह दावा कर रहे हैं कि हम कोरोना पर जीत हासिल कर लेंगे। लाखों मौतों पर उन्हे खेद है। सफेद कमीज पर लाशों के दाग ना लग जाए इसलिए आंखों के आंसुओं से उसे साफ करने में पीछे नहीं हट रहे हैं। यह नई बात नहीं है। कुछ मौको पर इमोशनल होना हर इंसान का जन्म सिद्ध अधिकार है चाहे वो नेता हो या कोई ओर। 1962 में चीन ने धोखे से हमला कर हमारे हजारों जवानों की शहादत ली थी। उस समय राष्ट्र कवि प्रदीप के लिखे गीत ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी गीत को लता मंगेशकर ने सुनाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आखों से आंसू आ गए थे। उसी परपंरा को पूरी शिद्दत के साथ हमारे नेता निभाते आ रहे हैं। वजह आंसुओं में वह गजब की ताकत है जो बहुत ही शातिर अंदाज में अपनी जिम्मेदारी- जवाबदेही की नाकामी से उपजे आक्रोश को शांत कर देती है। किसान आंदोलन में राकेश टिकैत के निकले आंसू ने क्या गजब ढाया यह बताने जरूरत नहीं है। आजकल टिकट मिलने या नहीं मिलने या हार जाने पर नेताओं को रोते हुए कभी भी देख सकते हैं। कोरोना काल में मौकों पर आंखों में आंसू लाने के लिए नेताओं ने अब प्रेक्टिस शुरू कर दी है। जो सत्ता में हैं वे कुछ दिन बाद इस वायरस की चपेट में आकर जिंदगी गवां चुके लोगों के परिजनों के पास जाकर उन्हें सांत्वना देंगे। मौके पर आंसू आ गए तो समझ लिजिए वोट बैंक पर से खतरा टल गया। आंसू नहीं आए तो दूसरा विकल्प आर्थिक मदद रहेगी। वह संभव नहीं है। सरकार किस किस को कितना देगी यह बड़ी चुनौती रहेगी। अगर देगी भी तो उतना जितना एक दिन के इलाज में डॉक्टर्स ने वेंटीलेटर- आक्सीजन की कमी और रेमडिशिविर इंजेक्शन के नाम पर वसूल कर लिए थे। इसलिए यहां नेता कोरोना संक्रमित रहे उन लोगों की लिस्ट तैयार करेंगे जो अपने दम पर ठीक हुए। वे किसी तरह उन्हें मनाएंगे कि वे इसका श्रेय सरकार की तरफ से दिए गए इंतेजाम को दें। इसके लिए कार्यकर्ताओं की सेना को मैदान में उतारा जाएगा। सभी को टास्क मिलेगा। जो टीम सबसे ज्यादा कोरोना से ठीक हुए लोगों को घर जाकर सम्मानित करेगी उसे पार्टी में विशेष कद मिलेगा। इसलिए आने वाले दिनों में अखबारों के लोकल पुलआउट ऐसी खबरों से भरे रहेंगे। अखबार वाले दिमाग से चले तो इस पर शानदार विज्ञापन के पेज भी निकाल सकते हैं। दूसरी तरफ कोरोना के बहाने सत्ता में आने को बैचेन विपक्ष के नेताओं का जवाब नहीं है। सेनेटाइजर छिड़काव का पाइप हाथ में लेकर इस तरह फोटो करवा रहे हैं मानो कोरोना उन्हें देखकर दुम हिलाकर इधर उधर जान बचाने के लिए भाग रहा हो। इन नेताओं की रसोई से बनने वाला भोजन ही इस वायरस की असली दवा होगी। ऐसा वे साबित भी करेंगे।
मजाक बनाकर रख दिया है नेताओं ने हमारा
देश के किस संविधान और किस धर्म में यह लिखा है कि जब राष्ट्र पर भारी संकट मंडराया हो। लोग त्राही त्राही कर रहे हो। ऐसे में क्या सभी को बिना किसी स्वार्थ- लालच के एक ही मंच पर नहीं आना चाहिए। वो निक्कमा,चोर, भ्रष्ट है, घर में दुबका हुआ है। हमें देखिए हम जिम्मेदार नेता है क्रांतिकारी है। ऐसा बोलने से एक दूसरे को नीचा दिखाने से क्या यह महामारी खत्म हो जाएगी। मीडिया में कोरोना को लेकर 90 प्रतिशत से ज्यादा राजनीतिक खबरें बकवास- प्रायोजित और सफेद झूठ की तरह दिखाई जाती और प्रकाशित होती हैं। मीडिया मिशन नहीं व्यवसाय है इसलिए जिंदा रहने के लिए पर्दे के पीछे यह सब करना उसकी मजबूरी है। एक नहीं तो दूसरा करेगा। पिछले डेढ़ साल से कोरोना का देश में डर दौड़ रहा है। एक खबर तलाश लाइए जिसमें सभी दलों के नेता एक ही मंच पर इस महामारी से लड़ते हुए नजर आए हो। उल्टा अपने हितों के लिए जनता की जान को जोखिम में डालने में सभी हदों को पार करते जा रहे हैं। अपने आकाओं को खुश करने के लिए अनाप शनाप झूठी बयानबाजी देना, छोटे- बड़े चुनाव एवं धार्मिक आयोजन कराने समेत अनेक तरह का पांखड- नाटक् हम देख रहे हैं। अब सेनेटाइजर- मास्क बांटना, खाना खिलाने की ऐसी होड़ मची हुई है कि आने वाले दिनों में यह दावा किया जाएगा कि कोरोना उनके प्रयासों से काबू में पाया है।
कम से कम इन छोटे देशों से सीख लिजिए
इससे उलट हम आपको बताते हैं कि कैसे विश्व के छोटे छोटे देशों में सभी दलों के नेताओं ने एकजुट होकर इस महामारी को पूरी तरह से काबू पाने में कामयाबी हासिल की। कैसे मीडिया का बेहतर इस्तेमाल किया गया। आइसलैंड, ताइवान, जर्मनी, न्यूजीलैंड की कमान महिलाओं के पास थी। सबसे पहले सत्ता और विपक्ष के सभी जिम्मेदार- जवाबदेह नेता एकजुट हुए। एक दूसरे को जिम्मेदारियां सौंपी। जनता में यह संदेश जाए हम ऐसे हालातों में एकजुट है। उसके बाद देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर फोकस किया। मौजूदा संसाधनों की कितनी उपलब्धता है। कैसे उनका इस्तेमाल करना है। नतीजा आज इन देशों में यह वायरस कभी का वापस जा चुका है। हमारे नेता गुगल पर जाकर जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल और न्यूीज़ीलैंड की पीएम जैसिंडा अर्डर्न के किए प्रयासों का अध्ययन करें। जनता को बताए। अगर ऐसा करने की हिम्मत दिखाते हैं तो उन्हें सैल्यूट करिए। ऐसा नहीं कर पाते हैं तो अखबारों और चैनलों में सुबह- शाम, सोते- जागते इन्हें बर्दास्त करने की आदत डाल लिजिए। वजह गरीब और जरूरतमंद आदमी चाहकर भी राजनीति नही कर सकता और देश में वो नेता हरगिज नहीं बन सकता जिसके पास मनी एंड मसल पॉवर नहीं हो। ऐसे में बस खुद को बचाने का एक ही उपाय है। किसी सूरत में कोरोना को लेकर किसी भी नेता की अनाप शनाप बयानबाजी पर भरोसा ना करें। वजह कोरोना किसी के साथ भेद नहीं करता जबकि हमारे देश की राजनीति ऐसा करने के लिए हमें बार बार मजबूर करती है।