कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न तो करुणानिधि को क्यों नहीं?

रणघोष अपडेट. रविकांत 

22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इसके 11 दिन पहले से मोदी दक्षिण भारत के तमाम मन्दिरों में घूम -घूमकर अनुष्ठान करने में लगे थे। मीडिया के जरिये इस अनुष्ठान को चुनावी माहौल में तब्दील कर दिया गया। भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद और अनेक हिंदूवादी संगठनों ने इस आयोजन को देशव्यापी बना दिया। मीडिया ही नहीं तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी ये कहने लगे थे कि राम मंदिर की लहर में मोदी को 2024 में रोकना नामुमकिन है। यानी हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी की जीत तय है। लेकिन 24 घंटे के भीतर नरेंद्र मोदी के एक एलान ने सबको चौंका दिया। नरेंद्र मोदी ने जननायक कहे जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान किया। मंडल कमीशन से पहले, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में ओबीसी आरक्षण लागू किया। उन्होंने ओबीसी को 30 फ़ीसदी आरक्षण दिया और इसे पिछड़ा, अति पिछड़ा में विभाजित किया। अति पिछड़ा (लोवर ओबीसी) को 12 फीसदी और पिछड़ों (अपर ओबीसी) को 8 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसे सामाजिक न्याय के कुशल फॉर्मूले के तौर पर याद किया जाता है। अति पिछड़ा ; जिसमें कारीगर, हुनरमंद और दस्तकार तथा सेवादार जातियां आती हैं। ब्रिटिश राज में औद्योगिकीकरण के चलते इनकी आर्थिक स्थिति बहुत बदहाल हुई। इनके लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान करके कर्पूरी ठाकुर ने बड़ा काम किया था। इसलिए आज अतिपिछड़ा तबका उन्हें मसीहा के तौर पर देखता है।कर्पूरी ठाकुर को भारतरत्न दिया जाना सराहनीय है। लेकिन यहां कई सवाल उठते हैं। क्या यह वास्तव में कर्पूरी ठाकुर का सम्मान है या छिपा हुआ राजनीतिक एजेंडा? क्या नागरिक सम्मानों के पीछे भी राजनीति होगी? जो काम बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने किया, वही काम तमिलनाडु में करुणानिधि ने किया। ऐसे में यह सवाल उठता है कि करुणानिधि को भारत रत्न क्यों नहीं? करुणानिधि की चर्चा इसलिए क्योंकि तमिलनाडु पहला राज्य है, जिसने सामाजिक न्याय के लिए पिछड़ों को सबसे पहले आरक्षण दिया।ब्रिटिश हुकूमत की मद्रास प्रेसीडेंसी में सबसे पहले 1921 में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन तात्कालिक विरोध के चलते यह 1927 में लागू हुआ।दरअसल, मद्रास प्रेसीडेंसी में आरक्षण लागू करने का ठोस और बुनियादी कारण मौजूद था। इस प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व और पिछड़े-दलितों की बड़ी दयनीय स्थिति थी। आंकड़ों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मण आबादी केवल 3.2% थी, लेकिन (1912 में) 55% डिप्टी कलेक्टर, 72.6% जिला मुंसिफ और 83% उप न्यायाधीश पदों पर ब्राह्मण काबिज थे। 1921 की जनगणना के अनुसार तीन चौथाई ब्राह्मण शिक्षित थे। जबकि यहां पर देवदासी जैसी अमानवीय प्रथा मौजूद थी। जमीनों पर एक खास तबके का कब्जा था। दलितों-पिछड़ों का शोषण और उत्पीड़न होता था। इसके खिलाफ मद्रास प्रेसिडेंसी में 1915-16 में पिछड़ी जातियों के नेतृत्व में जस्टिस आंदोलन शुरू हुआ। इसे द्रविड़ आंदोलन भी कहा गया। सी. एन. मुलियार, टी. एन. नायर, त्यागराज चेट्टी जस्टिस आंदोलन के मजबूत स्तंभ बने। आगे चलकर जस्टिस आंदोलन एक राजनीतिक दल में तब्दील हो गया।1920 में जस्टिस पार्टी ने पहला चुनाव जीता। देवदासी प्रथा को समाप्त किया गया। भूमि सुधार लागू किए गए। दलितों की वंचना को गैर कानूनी घोषित किया गया। आगे चलकर जस्टिस पार्टी और द्रविड़ आंदोलन के साथ ई. वी. रामास्वामी पेरियार जुड़े। इससे पहले पेरियार 1919 में कांग्रेस के सदस्य थे। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ 1924 में वायकॉम सत्याग्रह में भाग लिया। लेकिन 1925 में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया क्योंकि कांग्रेसी ब्राह्मण दलितों के साथ भेदभाव करते थे। 1926 में पेरियार ने दलितों पिछड़ों के स्वाभिमान को जगाने के लिए आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया। 1939 में पेरियार जस्टिस पार्टी के प्रमुख बने।1944 में उन्होंने इसका नाम बदलकर द्रविड़  कड़गम कर दिया। बाद में पार्टी का एक समूह अलग हो गया। 1949 में सीएन अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का गठन किया।द्रविड़ आंदोलन ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। इसमें पेरियार की बड़ी भूमिका थी। तमिलनाडु में जल्दी ही कांग्रेस की जगह द्रविड़ राजनीति ने ले ली। 1967 में अन्नादुरै मुख्यमंत्री बने। 1968 में मद्रास का नाम बदलकर तमिलनाडु हो गया। 1957 में पहली बार विधानसभा पहुंचने वाले करुणानिधि ने 13 बार जीत हासिल की। हमेशा अपराजेय रहने वाले करुणानिधि 1969 में पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद बने मद्रास प्रान्त में 1954 में 41 फीसदी आरक्षण था, जिसे बढ़ाकर करुणानिधि ने 1990 में 69% कर दिया।

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