भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का तीसरा मिशन मून यानी चंद्रयान-3 इस समय अपने सफर पर है. इसरो ने इसे 14 जुलाई 2023 को श्रीहरिकोटा से लॉन्च किया था. इसके बाद ये सफलतापूर्वक आंतरिक कक्षा में स्थापित हो गया. यहां से चंद्रयान-3 अंडाकार पथ पर धरती के चक्कर लगाते हुए चांद की कक्षा में पहुंचेगा. इसके बाद चांद की सतह पर उतरेगा. उम्मीद है कि 40 दिन के भीतर ये चांद की सतह तक का अपना सफर पूरा कर लेगा. चंद्रयान-3 के चांद की सतह तक के सफर के बीच जानते हैं कि इसे ले जाने वाले रॉकेट में कौन सा ईंधन इस्तेमाल किया जाता है और ये कैसे काम करता है?
चंद्रयान-3 को ले जाने वाले 43.5 मीटर ऊंचे और 642 टन वजनी रॉकेट में सॉलिड व लिक्विड दोनों तरह के फ्यूल का इस्तेमाल किया गया है. इस रॉकेट के फर्स्ट स्टेज में सॉलिड फ्यूल और सेकंड स्टेज में लिक्विड फ्यूल का इस्तेमाल किया जाता है. अंतिम स्टेज में क्रायोजेनिक इंजन है. इसमें लिक्विड हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का इस्तेमाल होता है. चंद्रयान-3 को ले जाने वाले रॉकेट के फ्यूल टैंक की क्षमता 27,000 किग्रा से ज्यादा है.
रॉकेट में इस्तेमाल फ्यूल कैसे करता है काम?
चंद्रयान-3 को ले जाने वाले तीन स्तरीय रॉकेट में दो सॉलिड फ्यूल बूस्टर्स होते हैं. वहीं, एक लिक्विड फ्यूल कोर स्टेज इसे जबरदस्त पावर देता है. शुरुआती स्तर पर सॉलिड फ्यूल बूस्टर रॉकेट को आगे बढ़ाने में मदद करता है. तकनीकी भाषा में कहें तो ये रॉकेट को थ्रस्ट में मदद करता है. इसके बाद लिक्विड फ्यूल कोर रॉकेट को कक्षा में पहुंचाने के लिए इस थ्रस्ट को बनाए रखने का काम करता है. रॉकेट में इस्तेमाल किए गए ईंधन को प्रोपेलेंट कहा जाता है. इसका ज्यादा अंतरिक्ष अभियानों के दौरान इस्तेमाल किया जाता है.
सीई-2 क्रायोजेनिक इंजन की क्या हैं खूबियां
इसरो ने चंद्रयान-3 के लिए सीई-2 क्रायोजेनिक इंजन डिजाइन किया है. ये इंजन एलवीएम-3 लॉन्च व्हीकल के क्रायोजेनिक अपर स्टेज को पावर देने का काम करता है. प्रभावशाली क्रायोजेनिक इंजन में हाईटेक सिस्टम लगाया जाता है. ये रॉकेट को आगे बढ़ाने में मदद करता है. इसे रॉकेट के अपर स्टेज में लगाया जाता है. क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन में इग्नाइटर, कम्बशन चेंबर, फ्यूल क्रायो पंप, फ्यूल इंजेक्टर, ऑक्सीडाइजर क्रायो पंप, क्रायो वॉल्व, गैस टरबाइन, फ्यूल टैंक और रॉकेट इंजन नोजल होते है.
कैसे चरण दर चरण बढ़ती है इसकी रफ्तार?
चंद्रयान-3 की लॉन्चिंग के दौरान रफ्तार 1,627 किमी प्रति घंटा थी. ये 108 सेकंड में 45 किमी की ऊंचाई पर पहुंच गया था. इसके बाद लिक्विड इंजन शुरू हुआ. फिर रफ्तार बढ़कर 6,437 प्रति घंटा पहुंच गई. इसके बाद 62 किमी की ऊंचाई पर रॉकेट से बूस्टर्स अलग हो गए. इससे रफ्तार 7,000 किमी प्रति घंटा पहुंच गई. लिक्विड इंजन के अलग होने के बाद क्रॉयोजनिक इंजन काम शुरू करेगा. फिर इसकी रफ्तार 16,000 किमी प्रति घंटा पहुंच जाएगी. क्रॉयोजनिक इंजन के जरिये रफ्तार 36,000 किमी प्रति घंटा तक पहुंच जाएगी.
लॉन्चिंग के वक्त क्यों निकलता है इतना धुंआ
चंद्रयान-3 की लॉन्चिंग के दौरान आपने देखा होगा कि रॉकेट बहुत बड़ी मात्रा में धुआं बाहर निकाल रहा था. दरअसल, ये आग की लपटें, गर्म गैस और धुआं है. ये सभी चीजें रॉकेट के फ्यूल के जलने पर पैदा होती हैं. रॉकेट के इंजन से निकला धुंआ जमीन की ओर पूरी ताकत से जाता है. इससे पैदा होने वाले विपरीत बल से रॉकेट जमीन से ऊपर उठते हुए उड़ान भरना शुरू कर देता है. जब रॉकेट फ्यूल या प्रोपेलेंट को जलाता है और एग्जॉस्ट को बाहर धकेलता है तो इससे ऊपर की ओर एक बल पैदा होता है. इस बल को थ्रस्ट कहा जाता है. रॉकेट को धरती के चारों ओर अंडाकर पथ में पहुंचने के लिए करीब 17,800 मील प्रति घंटे की रफ्तार की जरूरत पड़ती है.
मिशन मून में बीएचईएल का खास योगदान
भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड यानी बीएचईएल ने चंद्रयान के ईंधन टैंक टाइटेनियम प्रोपेलेंट टैंक का निर्माण किया है. टाइटेनियम कम वजन वाली ज्यादा मजबूत धातु होती है. ज्यादा अंतरिक्ष अभियानों में इसी धातु का इस्तेमाल किया जाता है. यही नहीं, बीएचईएल ने यान को ऊपर ले जाने में मदद करने वाला प्रोपल्सन मॉड्यूल भी उपलब्ध कराया था. बीएचईएल ने मिशन मून के लिए सभी उपकरण देश में ही बनाए थे. चंद्रयान-3 के लैंडर मॉड्यूल में लगीं बैटरीज भी बीएचईएल ने ही बनाई हैं. ये बैटरियां लैंडर की ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर रही हैं.