मेरे कदम अचानक रुक गये। कार की चाबी वापस जेब में रख कर उसे देखता रहा। देखा मैंने उसे पहले भी कई बार था, पर चेहरा आज पहली बार देख रहा था। वह मुझ से कहीं ज़्यादा खुश लग रहा था।
मेरा ख्याल अपने चेहरे पर गया। अजीब लग रहा था कि इतने सालों तक देखने के बाद भी अपने चेहरे को लेकर एक निश्चित सी तस्वीर मेरे दिमाग़ में नहीं है। मैंने अपने कुछ फोटोग्राफ याद करने की कोशिश की। एक औपचारिक मुस्कुराहट के नीचे हमेशा एक परेशानी दबी हुई दिखी।
जी में आया उस से बात करूँ। पर्स में छोटे से छोटा नोट 50 का है, मुझे याद आया। पैंट की जेब टटोली तो एक 5 रुपये का सिक्का अंगुली को लगा।
एक विचार उभरा। अगर इसकी और मेरी तस्वीर किसी अख़बार में साथ साथ छापी जाए, और पाठकों से पूछा जाए- “बताओ कौन अधिक खुश दिखाई दे रहा है?” इसे सौ में से ९० वोट मिलेंगे। मुझे खुद पर तरस आया। उसे हराने की इच्छा ज़ोर पकड़ रही थी।
उसकी गाड़ी को भी चार पहिए थे। वह उस पर बैठा गुनगुनी धूप में नहा रहा था। मुस्कुरा रहा था। बहुत पास जाकर मैंने पूछा, “भीख माँगते हो। दोनों पैर कटे हुए हैं, फिर भी इतने खुश हो?”
उसकी मुस्कान हँसी में बदल गयी, “आपने ज़रूर अपनी जेब में दुबका सिक्का ढूँढ लिया है।”
मैं ठिठक गया।
मेरे मन में चल रहा पाँच और पचास का असमंजस इसने कैसे भाँप लिया? हो सकता है यह पाँच को पचास तक ले जाने का इसका आजमाया हुआ तरीका है।
“तुम जब तक फ़ैसला करो पाँच या पचास, मैं तुम्हें बता दूं, मेरे पैर कट जाने का कोई दुःख नहीं है मुझे। बल्कि लगता है कटने ही चाहिए थे। ज़िंदगी पाँच या पचास के बीच का फासला नहीं है। इतनी छोटी ज़िंदगी जीना ज़िंदगी की तौहीन करना है।” वह बोलते हुए दूसरी तरफ देख रहा था। जैसे मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।
यह भी एक तरीका हो सकता है, किसी के अहम को खरोंच कर बटुआ खुलवाने का।