रणघोष खास. प्रदीप नारायण
नियम 134 ए अधिकार के तहत प्राइवेट स्कूलों में दाखिले को लेकर मासूम बच्चों का अपने माता- पिता के साथ सड़कों पर उतरना शिक्षा में संडाध का फैलना है। अधिकारी ओर प्राइवेट स्कूल के संचालक बार बार इन बच्चों को गरीब बोलकर क्या साबित करना चाहते हैं। इनकी हरकतों से साफ जाहिर हो रहा है कि गरीब बच्चे नहीं अच्छा खासा मोटा वेतन लेते अधिकारी प्राइवेट स्कूल संचालकों की मानसिकता है। सभी सरकारी- प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं में पढ़ रहे छोटे- बड़े विद्यार्थियों से अपील है कि वे घर घर जाकर चंदा एकत्र कर इन अधिकारियों एवं प्राइवेट स्कूलों की जेबों को भर दे। असल में ये बेचारे असली गरीब है।
शिक्षा विभाग को शर्म तक नहीं आती कि 9 माह बीत जाने के बाद अब उन्हें 134 ए के तहत बच्चों का दाखिला कराने की चिंता सता रही है। कार्रवाई के नाम पर नाटक- पांखड करते हैं चंडीगढ़ में बैठे उच्च अधिकारी। इनके बच्चे देश- विदेश की नामी शिक्षण संस्थाओं में पढ़ते हैं। वे इंडियन है। सड़कों पर संघर्ष करने वाले भारतीय। हमारी शिक्षा व्यवस्था ने देश के दो चेहरे बना दिए हैं। जो जरूरतमंद है वह भारतीय है जिसे इंडियन बनाने के लिए 134 ए का सहारा लेना पड़ रहा है। प्राइवेट स्कूलों में अच्छी खासी फीस जमा कराने वाले अभिभावक नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे के बराबर में 134 ए वाला भारतीय बैठे। असली लड़ाई यही है। शिक्षा अधिकारी एवं सरकारी शिक्षक वेतन भारतीय बच्चों को पढ़ाने का ले रहे हैं ओर खर्च अपनी संतानों को इंडियन बनाने पर कर रहे हैं। यहीं दोगली मानसिकता गुरु के नाम पर दाग है। 12 वीं तक शिक्षा का लहजा प्राइवेट स्कूलों में इंडियन स्टाइल में चाहिए। उसके बाद सरकारी कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए भारतीय होने का संघर्ष करते हैं। शिक्षा के ठेकेदारों ने हमारी शिक्षा को मौका परस्त बना दिया है। सही मायनों में असली संघर्ष सरकारी- प्राइवेट स्कूलों में दाखिला को लेकर नहीं उस गुरु की तलाश में हैं जो शिक्षा के बाजार में कहीं खो गया है। परिवार- समाज- राष्ट्र की बुनियाद को खोखली होने से बचाना है तो सबसे पहले 134 ए के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने वालों को खुद पर शर्म करनी चाहिए। वे किस हैसियत से गुरु होने का दर्जा लिए हुए हैं। अगर यही शिक्षा का चेहरा है तो इससे नफरत करिए। शिक्षा हमें सबसे पहले बेहतर इंसान होने का अहसास कराती है गरीबी- अमीरी के तराजू में नहीं तोलती…।