स्मृति शेष.. दो बार के कार्यवाहक पीएम गुलजारीलाल नंदा के अंतिम दिन

रणघोष खास. प्रत्यक्ष मिश्रा 

देश के दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा आदर्शवादी राजनीति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण थे। आज के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है उनके राजनीतिक और धार्मिक होने के मायने काफी अलग थे। वह भारत को आधुनिक बनाने के पक्षधर अवश्य थे लेकिन वह सभी धर्मों और वर्गों को समतल पर देखना चाहते थे। नन्दा सच्चे अर्थों में गांधीवादी मूल्यों पर खरा उतरने वाले शख्स थे। अफसोस ये है कि सर्वधर्म समभाव की बात करने वाले नन्दा को जीवन के अन्तिम दिन बड़े कष्ट से व्यतीत करने पड़े। वह उच्च पदों पर रहकर भी जीवन की आम जरूरते पूरी नहीं कर पाए। कभी किराए ना देने की वजह से मकान-मालिक ने धक्के देकर बाहर कर दिया तो कभी 500 रूपये मासिक पेंशन में खर्च चलाते दिखे। जिस देश में ग्राम प्रधान और क्षेत्र पंचायत सदस्य तक के अपने ठाठ-बाट हों वहां गुलज़ारी लाल नंदा होना आम बात नहीं है। ‘Gulzarilal Nanda : A life in the service of the people’ में वरिष्ठ पत्रकार प्रोमिला कल्हण लिखती हैं, “नन्दा के लिए हर वर्ग के लिए समान भाव था। उनके लिए उच्च या निम्न वर्ण जैसी कोई परिभाषा नहीं थी। उनका मानना था कि भारत में अब छुआछूत की कोई गुंजाइश नहीं रही।” नन्दा का मानना था महात्मा गांधी हद तक इसमें सफल रहे। यह आवश्यक भी था क्योंकि यदि रूढ़िवादी मत समझौताहीन बना रहता है, तो लोगों से अपेक्षा की जा सकती है कि वे ‘नो रिलीजन’ के साम्यवादी नारे को अपनाएंगे और धर्म से और दूर चले जाएंगे। पाकिस्तान के सियालकोट में 4 जुलाई 1898 को जन्म लेने के कारण गुलज़ारी लाल नंदा को वहां से बेहद लगाव रहा। वहीं अविभाजित भारत के सियालकोट, पुंछ और रावलपिंडी में नन्दा ने अपना बचपन बिताया। प्रोमिला अपनी किताब में बताती हैं कि अपने पुंछ के बिताए समय को नन्दा अपने जीवन का सबसे आनंदमय अवधि मानते थे।  वह 1908 से 1914 के बीच पुंछ रियासत में थे, उनके पिता ब्लाकी राम नंदा विक्टोरिया जुबली हाई स्कूल पुंछ में शिक्षक थे।लाहौर, आगरा और इलाहाबाद में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान वह अपने माता-पिता से मिलने पुंछ आते रहे। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद फरवरी, 1966 में इन्दिरा गांधी की सरकार के समय नन्दा के द्वारा दोनों देशों की युद्धविराम रेखा खोली गई ताकि विभाजन और 1965 के युद्ध के दौरान खो चुके परिवार वापस मिल सकें तो पुंछ के लोगों ने नंदा का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था। नन्दा, ताशकंद समझौते के सम्बन्ध में यहां आएं थे। एकबार पुंछ के एक पुराने हाई स्कूल, जहां नन्दा ने 10वीं कक्षा की पढ़ाई की थी, एक बड़ी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि, “उन्होंने पूरी दुनिया घूम ली लेकिन पुंछ जैसी जगह नहीं देखी।”

गौहत्या विरोध आंदोलन ने छीन ली थी नन्दा की कुर्सी

नवम्बर 1966 में व्यापक स्तर पर हुए गौहत्या विरोध आंदोलन के दौरान नन्दा की भूमिका को देखकर निःसंदेह कहा जा सकता है कि नंदा वास्तव में व्यक्तिगत तौर पर धार्मिक किस्म के व्यक्ति थे लेकिन उनके धार्मिक होने के मायने काफी अलग थे। उनके लिए हिन्दू धर्म में पहली प्राथमिकता अच्छे हिंदू होने से थी। यहां पर देखा जा सकता है कि सैद्धांतिक तौर पर भी नंदा, महात्मा गांधी के कितने करीब हैं। जहां गांधी कहते हैं, “एक हिंदू, अच्छा हिंदू बने और एक मुसलमान अच्छा मुसलमान बनें।” नंदा गांधी की तरह सभी धर्मों को एक मंच पर लाने के पक्षधर थे। 1956 में नंदा ने भारत साधु समाज को अस्तित्व में लाने में मदद की। नई दिल्ली में मानसिक और आध्यात्मिक अनुसंधान संस्थान की स्थापना नन्दा की ही कल्पना थी। एक गृह मंत्री होने के नाते नंदा ने गोहत्या विरोध आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अक्टूबर 1966 में गृहमंत्री रहते नन्दा ने पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, असम और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों को एक संविधान के अनुच्छेद 48 का हवाला देते हुए गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने को भी कहा।7 नवंबर 1966 को नई दिल्ली संसद भवन पर जो कुछ हुआ वह अप्रत्याशित था। द हिन्दू की एक रिपोर्ट के मुताबिक “तकरीबन 3 से 7 लाख साधुओं की भीड़ ने गोहत्या प्रतिबंध पर मांग को लेकर संसद भवन का घेराव करना शुरू किया। प्रदर्शन इतना व्यापक था कि पुलिस और साधुओं के बीच भारी टकराव देखने को मिला जिसमें 7-8 लोगों की मौत हो गई।” कामराज इस प्रदर्शन में बाल-बाल बचे। कांग्रेस संसदीय दल की कार्यकारी समिति के प्रमुख सदस्यों ने कथित तौर पर इस विफलता के लिए गृह मंत्री नंदा को जिम्मेदार ठहराया और उन्हें बर्खास्त करने की मांग की। इंदिरा गांधी ने अगले ही दिन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा को बर्खास्त कर दिया। हालांकि नन्दा की भूमिका भारत साधु समाज के संरक्षक के रूप में अवश्य रही लेकिन वह इस आन्दोलन के साजिशकर्ताओं में शामिल नहीं थे।

             नन्दा ने क्यों कहा , मोरारजी देसाई ने दिमागी संतुलन खो दिया ?

मोरारजी देसाई महत्वकांक्षी किस्म के व्यक्ति थे, नंदा उन्हें भली-भांति जानते थे। प्रोमिला ने नन्दा के इस पत्र का जिक्र किया जिसमें नन्दा, देसाई से नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहते हैं , “श्री मोरारजी देसाई द्वारा मेरे बारे में व्यक्तिगत रूप से दिए गए कुछ झूठे भ्रामक बयान  अखबारों में छपे हैं, उनके अनुसार मैं गुजरात के नेताओं के खिलाफ हो गया था क्योंकि गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने मुझे गुजरात से लोकसभा सीट के लिए टिकट देने से इनकार कर दिया। यह पूर्णतया: झूठ है। गुजरात के नेताओं ने मुझसे कई बार संपर्क किया और गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव ने मुझे पत्र लिखकर मेरे गुजरात में मेरे पुराने निर्वाचन क्षेत्र साबरकांठा से खड़ा होने के लिए कहा। मैंने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि मुझे लगा कि गृह मंत्री के रूप में मेरी जिम्मेदारियों को देखते हुए मुझे आम चुनाव के दौरान दिल्ली से दूर नहीं रहना चाहिए। 1966 में जिन परिस्थितियों में मैंने सरकार छोड़ी, उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, कभी-कभी अपनी नाराजगी की भावनाओं को व्यक्त करना मेरे लिए अस्वाभाविक नहीं था। जैसा कि श्री मोरारजी देसाई ने बताया था, मेरी कोई योजना नहीं थी। यह निर्विवाद है कि मैंने शुरू से लेकर आज तक हमेशा श्रीमती इंदिरा गांधी का पक्ष लिया और हर अवसर पर उनके समर्थन में अपना छोटा सा योगदान दिया है। यह एक सच्चाई है कि मोरारजी देसाई श्रीमती गांधी के खिलाफ नेतृत्व के लिए अपनी लड़ाई के लिए मेरा समर्थन हासिल करने के लिए मेरे आवास पर आए थे। मैंने उन्हें, उनके विरोध में खड़े होने से रोकने की पूरी कोशिश की। श्री मोरारजी देसाई ने राजनीति में खुद को इतना नीचे गिरा लिया है कि उन्होंने अपना दिमागी संतुलन खो दिया है।”

शास्त्री के लिए था नन्दा के दिल में अपार सम्मान

नंदा के दिल में लाल बहादुर शास्त्री के लिए अपार सम्मान था। वह उनके रास्ते में कभी खड़े नहीं हुए और जब शास्त्री की मृत्यु हुई तब वह इंदिरा के रास्ते में बाधा नहीं बने। उनके अन्दर राजनीतिक मूल्यों को लेकर ईमानदारी थी जिसके साथ उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। समकालीन नेता गणों में नंदा के लाल बहादुर शास्त्री के साथ सबसे प्रगाढ़ रिश्ते थे। ताशकंद में रहस्यमय मौत हो जाने के बाद नंदा का उनके बारे में मानना था कि भारत के लोगों के पास गर्व और कृतज्ञता की गहरी भावना के साथ शास्त्री को याद करने का अच्छा कारण है। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद नन्दा पार्टी में लाल बहादुर की स्थिति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। इसका एक कारण यह भी था जब देश को लगने लगा था, नेहरू के बाद कौन ? के लिए देसाई लालायित हैं तो खुद नन्दा, कामराज के पास शास्त्री का नाम लेकर गए। पाकिस्तान के साथ युद्ध होना नन्दा, शास्त्री के जीवन की सबसे बड़ी घटना और चिन्ता मानते थे इसका कारण नेहरू के समय चीन के साथ युद्ध में मिली हार भी थी। नन्दा, पाकिस्तान से युद्ध के दौरान कई बार शास्त्री से मिले भी थे।

आपातकाल से मायूस नन्दा फिर भी क्यों करते रहे इन्दिरा का सम्मान ?

आपातकाल से नाराज़गी व्यक्त करना किसी भी व्यक्ति के लिए स्वाभाविक था। जहां लोगों को जेल में ठूंसा जा रहा हो, छात्रों की आवाज़ दबाई जा रही हो, देशभर में सरकार के खिलाफ आंदोलन हो रहें हों और सरकार उनका दमन करे, तो नन्दा कैसे आहत ना होते? लेकिन इसके बावजूद भी इन्दिरा के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था।  उन्होंने इंदिरा के आपातकाल का समर्थन भले ही ना किया हो लेकिन वह उनको पत्र लिखकर आपातकाल का समाधान निकालने के लिए अवश्य कहते रहे, जिसका जिक्र अपनी किताब में प्रोमिला भी करती हैं। जून 27 , 1975 को लिखे एक पत्र में नन्दा कहते हैं,”मेरी प्रिय इंदिराजी, मैं हाल के हुए घटनाक्रमों से बहुत परेशान महसूस कर रहा हूं। क्या संसद में पार्टी के सदस्यों की बैठक किसी स्पष्टीकरण के लिए होने जा रही है ? यदि आपको समय मिल जाए तो मैं अपनी व्यक्तिगत जानकारी के लिए आपसे पहले मिल सकता हूं। मैं समझता हूं कि सभी को सामान्य स्थिति की बहाली के लिए प्रयास करने का आह्वान जितनी जल्दी हो सके, करना चाहिए। इस संबंध में आवश्यक कदमों पर भी विचार करना पड़ सकता है। मैं इस उद्देश्य के लिए कुछ काम या मदद करना चाहता हूं।”

पी. आर दास मुंशी ने की थी नन्दा को सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग

गुलज़ारी लाल नंदा दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहने के बावजूद भी अपनी आम जरूरतें पूरी नहीं कर पाए। जीवन के अन्त तक वह आर्थिक तंगी से जूझते रहे। 14 वीं लोकसभा के दौरान पश्चिम बंगाल के रायगंज लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रियरंजन दासमुंशी ने 22 जुलाई 1996 को संसद के द्वितीय सत्र के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री रहे नन्दा के लिए तत्कालीन सरकार से कुछ सुविधाएं मुहैया उपलब्ध कराने की मांग की थी। तत्कालीन देवगौड़ा सरकार से मांग करते हुए मुंशी कहते हैं, “अध्यक्ष महोदय, मैं आपके माध्यम से सरकार का ध्यान एक महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर आकर्षित करना चाहता हूं। पूर्व प्रधानमंत्रियों को प्रोटोकॉल के अनुसार सुरक्षा, आवास और सब कुछ प्रदान करने के लिए पहले से ही एक अधिनियम और स्थापित परम्परा है। अध्यक्ष महोदय, मैं आपके माध्यम से सरकार से जानना चाहता हूं कि सदन की गरिमा और सदस्यों की गरिमा की हमेशा रक्षा करने वाले राष्ट्रपति के शपथ रजिस्टर के अनुसार जो व्यक्ति दो बार प्रधानमंत्री रहा हो उसका भाग्य क्या होता है? हम तेजी से स्वतंत्रता आंदोलन की स्वर्ण जयंती की ओर बढ़ रहे हैं। … श्री गुलजारीलाल नंदा की हालत ठीक नहीं है। उन्होंने लिखा- सरकार इसकी परवाह नहीं कर रही है कि उसकी देखभाल कैसे की जा रही है और उसकी सुरक्षा कैसे की जा रही है? जिस दिन विश्वास प्रस्ताव लिया गया था, उस दिन मैंने प्रधान मंत्री श्री देवेगौड़ाजी को एक व्यक्तिगत नोट दिया था जिसमें कहा गया था कि उन्हें इस मामले पर तुरंत ध्यान देना चाहिए। जहां तक ​​मैं समझता हूं, कुछ भी नहीं किया गया है। मैं आपसे अपील करूंगा कि क्या अधिनियम के प्रावधानों को बढ़ाया जा सकता है ताकि श्री गुलजारी लाल नंदा को उनके आखिरी दिनों में आराम मिल सके, यह मेरा निवेदन है।”15 जनवरी, 1998 को लगभग 100 वर्ष की आयु में नन्दा ने अन्तिम सांस ली।

(प्रत्यक्ष मिश्रा यूपी के अमरोहा स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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