मिलिए ऐसी शख्सियत से जिसकी मौजूदगी जिंदगी में रंग भरती है..

विजय भाटोटिया एक ऐसा नाम जिसे देख थियेटर इतराता है… 


रणघोष खास. रेवाड़ी


मानव मन के भावों को, शब्दों में पिरोकर, उसे अभिनय से जीवंत करने वाले रंगकर्मी का नाम है विजय भाटोटिया। मशहूर नाटककार, निर्देशक और अदाकार 57 वर्षीय भाटोटिया ने अपनी 40 साल से लंबी इस यात्रा में बेहिसाब नाटकों का मंचन किया। हरियाणवी फिल्म कुनबा बनाकर एक तरफ मनुष्य जीवन की विभिन्न अनुभूतियों को बेहद सहज भाव से अभिवक्त किया। वहीं हरियाणवी लोक कला एवं संस्कृति को जीवंत बनाए रखने के मकसद से अपनी मूल जड़ो से अनावरत जुड़े हुए हैं। पिछले चार दशकों से ज्यादा समय से सामाजिक एवं सांस्कृतिक सक्रीय सफर में बॉलीवुड तक हरियाणवी कला व संस्कृति की अलख जगाने वाले इस कलाकार ने तीन हरियाणवी फिल्मों और दो नाटकों समेत करीब एक दर्जन फिल्मों एवं सैकड़ो नाटकों में सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को छूते हुए यह साबित किया है कि वह रंगमंच और फिल्मों में अपने अभिनय के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों को दूर कर समाज में सकारात्मक विचाराधारा के रंग भरने में जुटे हुए हैं। यही नहीं उन्होंने सरकार द्वारा प्रायोजित प्रौढ़ शिक्षा, दहेज प्रथा उन्मूलन एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में समाज को नई दिशा देने में अपनी कला को समर्पित किया है। इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिटव लि. में सेवारत विजय भटोटिया ने अपने रंगमंच एवं फिल्म लेखन और अभिनय के सफर में कई ऐसे अनुछुए पहलुओं को उजागर किया है, जो यह साबित करता है कि कोई भी इंसान स्वयं प्रेरणा बौद्ध से भी अपने जीवन के ध्येय को साकार करके विजय पथ हासिल कर सकता है।

आइए इस अभिनेता की जीवन यात्रा से रूबरू हो जाए

हरियाणा के रेवाडी जिले के पाली गांव में एक साधारण किसान परिवार में 15 अगस्त 1962 जन्मे विजय भटोटिया के दादा एक किसान और पिता आरसी भटोटिया रेवाड़ी के प्रतिष्ठित वकील और माता रेवती देवी गृहणी थी। मसलन परिवार में किसी प्रकार की कला या रंगमंच का कोई भी माहौल नहीं था। इसके बावजूद विजय भटोटिया में बचपन में रंगमंच कलाकार के गुण नजर आने लगे, जिसमें परिवार के हर सदस्य ने उसे हतोस्साहित नहीं किया, बल्कि उसके हौंसले को पंख लगाने का काम किया। विजय भाटोटिया का कहना है कि बचपन से ही उनकी नाटकों और कला में रुचि रही है। पाली गांव के सरकारी स्कूल में पांचवी कक्षा में पढ़ते हुए अपनी स्वयं प्रेरणा से उन्होंने यक्ष युद्धिष्ठर संवाद व छठी कक्षा में जयद्रथ वध नाटक का मंचन करके अपनी कला का प्रदर्शन शुरू कर दिया। इसके लिए उन्हें अपने कोर्स की किताबों से स्वयं प्रेरणा लेकर अपने आपको आगे बढ़ाया। जब वह कॉलेज में पहुंचे तो युवा फेस्टिवल के दौरान उन्हें पुन: अभिनय शक्ति का ज्ञान बौद्ध हुआ और मैट्रिक सर्टिफिकेट भी हासिल किया। इसी आत्मविश्वास की वजह से वह आज तक निर्विध्न रंगमंच से जुड़े हुए हैं। खासबात है कि वे फिल्म और नाटक की कहानी का लेखन स्व्यं करते हैं। उन्होंने बताया कि उनके दो बहुचर्चित नाटको और तीन फिल्मों का लेखन की रफ्तार अनावरत जारी है। विजय ने छात्र जीवन में 1979 से 1982 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से कार्यकर्ता के रूप भी जुड़े रहे और केएलपी कालेज रेवाडी के उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी के साथ विभिन्न नाटकों, स्किट,कविता पाठ, भाषण प्रतियोगिता एवं रक्तदान कार्यक्रमों में सक्रीय प्रतिभागिता की। भटोटिया ने मास्टर्स इन कॉमर्स(एमकॉम)-बिजनेस एडिमिनिस्ट्रेशन, मास्टर्स इन आर्ट्स(एमए)-पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, बैचलर ऑफ़ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनेकशन (बीजेएमसी) •एसआरसी, मंडी हाउस, नई दिल्ली से अभिनय में डिप्लोमा किया है।

अभिनय व संवाद में संस्कृति के रंग

वरिष्ठ रंगकर्मी एवं फिल्मी अभिनेता विजय भाटोटिया ने हरियाणवी फिल्म ‘कुणबा’ की कथा लिखने के बाद संवाद के साथ एक अधिवक्ता (रणबीर सिंह) के किरदार के साथ संयुक्त परिवार के मुखिया की भूमिका निभाई और सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे को निर्भीकता से उजागर किया है, वह आज के युग में बढ़ते एकल परिवार की परंपरा के लिए बनी चिंता के समाधान से कम नहीं है। मसलन इस आधुनिक युग में माता पिता के बुढ़ापे का सहारा बनने के बजाए बच्चे धन और शौहरत पाने के लालच में उन्हें वृद्धाश्रम में भेजना अपनी शान समझते हैं। इस फिल्म में विजय भटोटिया के साथ बॉलीवुड अभिनेता कादर खान ने भी सामाजिक और सांप्रदायिक सौहार्द्र के साथ सर्वधर्म की एकता का संदेश देकर हरियाणवी संस्कृति को जीवंत करने का प्रयास किया है। इसलिए भी कुणबा में उनकी प्रमुख अभिनेता की भूमिका सुर्खिंयों में रही। हालांकि हरियाणवी फिल्म ‘पीहर की चुंदडी’ में बेटियों को लेकर विजय भटोटिया के अभिनय की भूमिका भले ही एक विपरीत विचारधारा के रूप में फिल्माई गई हो, लेकिन उनका यह किरदार भी खासतौर से आज के युग में बिगड़ते सामाजिक ताना बाना को सकारात्मक ऊर्जा देकर उसे पुनर्जीवित करने के लिए सीधा संदेश की छलक है, जिसमें हरियाणवी सभ्यता और संस्कृति की सीख मिलती है। विजय भटोटिया ने 1995 में प्रदर्शित ‘छोरी नट की’ भी ऐसे कथा लेखन और अभिनय की झलक हरियाणा की लुप्त होती संस्कृतियों को जीवंत करने के ईर्दगिर्द ही घूमती रही है। इसके अलावा उनकी मुकलावा, पुजारन, जाटनी, अपने हुए पराये, अला-उदल, चंद्रावल-2, माटी करे पुकार आदि फिल्मों में अभिनय भी हरियाणवी लोक संस्कृति, सभ्यता और सामाजिक सरोकारों को छूता नजर आता है। विजय भटोटिया ने मैं हूं गीता, अब तो जाने दो, दूसरी लड़की, त्रिमूर्ति, बच्चे क्या कहेंगे, किस्मत, शमशान, कॉकटेल, लगे रहो मुन्ना भाई, शोभा यात्रा, किड्स न.1, हेलो हम ललन बोल रहे हैं, धंधा जैसी फिल्मों ने किसी न किसी रुप में अभिनय से सबको चौंकाया है।

नाट्य कला का संवर्धन

रंगकर्मी एवं अभिनेता विजय भटोटिया पिछले साढ़े तीन दशक से एक थियेटर ग्रुप के रूप में सांस्कृतिक संस्था ‘बंजारा’ के निदेशक के रूप में नाट्य कला के संवर्धन व सामाजिक चेतना के मकसद से नाट्य विधा को विस्तार देने में जुटे हुए हैं, जिनके लिखित एवं निर्देशित सैकड़ो नाटकों का अब तक मंचन हो चुका है। नाट्य मंचन में उनकी यह संस्था कला के क्षेत्र आज अपनी विशेष पहचान बनाकर रंगमंच की  नवोदित प्रतिभाओं को मंच मुहैया करा रही है। हरियाणा की इस सांस्कृतिक संस्था बंजारा के बहुचर्चित हरियाणवी हास्य-नाटक `जै सुख तै चाहवै जीवणा तो भौंदू बणकै रह’ विजय भटोटिया के रंगमंच की सर्वश्रेष्ठ कला का जीवंत उदाहरण है। उन्होंने हाल ही में नारी सशक्तिकरण व गर्ल्स व चाइल्ड को लेकर एक फिल्म की कथा लिखी है, जिसे जल्द ही किसी फिल्म निर्माता के सहयोग से मूर्तरूप देने के लिए फिल्माए जाने की उम्मीद है।

रंगमंच की सुर्खियों में रहे विजय

विजय भटोटिया मानते हैं कि स्वयं ‘कला’ का साकार रुप होना ही एक कलाकार की ‘विजय’ है। इसी ध्येय के साथ वे पिछले चार दशक से ज्यादा समय से अपनी कला रुपी प्रतिभा के साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक सृजन यात्रा को पंख लगा रहे हैं। उनकी कथा के लेखन एवं संवाद की सार्थकता को सरकार ने ही नहीं, बल्कि निजी कंपनियों ने भी अपने प्रचार प्रसार के लिए इस्तेमाल करने में कसर नहीं छोड़ी। अपने फिल्मी एवं नाटक मंचन के साथ विजय भटोटिया ने सरकार द्वारा प्रायोजित प्रौढ़ शिक्षा, दहेज कुप्रथा उन्मूलन जैसे अभियानों में विजय भटोटिया को हिस्सा बनाया गया। वहीं बिंदास बोल, टाटा टी, आइडिया मोबाइल, साइकल डेटर्जेंटस, शक्ति पम्पस, एवं आयशर ट्रेक्टर ब्रांड जैसे विज्ञापनों में भी अभिनय करके भटोटिया ने अपनी कला की छाप छोड़ी है। आज भी वे रंगमंच की कला से लोक कला एवं संस्कृति के प्रति सामाजिक चेतना जगाने में जुटे हैं। भटोटिया के एकांकी नाटकों डेढ़ इंच ऊपर, संक्रमण, बड़े भाई साहब और ख्वाब में किये गए मंचन बेहद सुर्ख़ियों में है.

रंगमंच पर सामाजिक चेतना

विजय भटोटिया का कहना है कि सामाजिक चेतना और पारिवारिक दृष्टि को फोकस में रखते हुए ही उन्होंने फिल्में और नाटकों या कॉमेडी के लेखन व अभिनय को सर्वोपरि रखा है। सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों के साथ रंगमंच, फिल्मों व नौकरी तक के समर्पित भाव से मिल रहे विस्तार में उन्हें पहले माता पिता और अब मेरे हमसफर अर्धांग्नि का भरपूर सहयोग मिल रहा है। इसी वजह से अभी तक वह अपनी कला रुपी यात्रा को निर्विघ्न आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। विजय का कहना है कि जब इंसान में कुछ रचनात्मक करने की लगन व जिज्ञासा हो, तो रुकावटों के बावजूद समाधान व रास्ते खुद बे खुद मिलते जाते है। हालांकि जब वह अतीत में झांकते हैं तो कई ऐसे फैसलों या ख्यालों का बौद्ध होता है जिन्हें यदि वह निसंकोच व नीडर होकर उनको अमलीजामा पहना देते, तो आज उनकी कला एवं रंगमंच की दशा और दिशा कुछ और ही होती। 

पुरस्कार एवं सम्मान

हरियाणा के रंगमंच एवं फिल्म कलाकार विजय भटोटिया को स्वयं लिखित एवं निर्देशित हास्य नाटक ‘जै सुख तै चाहवै जीवणा तो भोंदू बणकै रह’ के लिए सर्वश्रेष्ठ हास्य नाटक का राष्ट्रीय स्तरीय पुरस्कार मिल चुका है। इसके अलावा यादव कल्याण परिषद रेवाडी एवं गुरुग्राम द्वारा नाटक लेखन एवं क्षेत्रीय फिल्मों में लेखन एवं अभिनय के क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मान से भी उन्हें नवाजा जा चुका है। कालेज छात्र के समय केएलपी कालेज रेवाडी से भी अभिनय में मेरिट प्रमाण पत्र हासिल किया है। इसके अलावा विभिन्न मंचों पर विजय भटोटिया सम्मान हासिल करते रहे हैं।

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