सरकारी स्कूलों को अच्छा बताने वालों के बच्चे कहां पढ़ रहे हैं, आओ पता करते हैं वरना गंगा फिर मैली हो जाएगी..

डंके की चोट पर 

रणघोष खास. प्रदीप नारायण : गंगाजल की तरह शिक्षा का चेहरा भी अब साफ दिख रहा है। कोरोना आने से  पहले मतलबी- स्वार्थी- लालची- छल- कपटी सोच के इंसानों ने सबकुछ मैला किया हुआ था। लंबी- चौड़ी भूमिका ना बनाकर सीधे स्कूली शिक्षा के स्तर पर आते हैं। हमारे देश में शिक्षा प्राइवेट- सरकारी नाम की दो बहनों की तरह है

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रेवाड़ी- डंके की चोट पर।

प्राइवेट वाली के पास दिखाने- बताने को बहुत कुछ है लेकिन मां (सरकार) से उसकी बनती कम है। इसलिए अलग रहती है। जरूरी- जरूरी बातों को मानती है ताकि कोई उस पर उंगली ना उठा सके। मेहनत में उसकी कोई बराबरी नहीं क्योंकि उसे संभालने वाला कोई नहीं है। वह सबकुछ अपनी  बेहतरी के लिए कर रही है। यह बात मां को भी पता है। इसलिए ना चाहते हुए भी हर साल उसकी शानदार कामयाबी पर बधाई जरूर देती है।

साथ ही अपनी सरकारी बेटी (स्कूल) को फटकारती रहती है कि कुछ इससे सीखो। कब तक मेरे भरोसे आराम परस्त जिंदगी जीती रहोगी। एक दिन आएगा थक कर बैठ जाऊंगी । फिर क्या करोगी। आत्मनिर्भर बनने के अलावा मेरे पास देने को कुछ नहीं बचेगा। आखिर वह दिन आ गया जब कोरोना के बहाने दोनों बहनों का असल चेहरा सामने आ गया।

सरकारी बेटी से बुरी तरह परेशान मां ने साफ कह दिया मुझे नहीं पता अपने- अपने घरों को संभालो। मौका अच्छा है अपनी प्राइवेट बहन की तरह घर- घर जाकर बच्चों के माता-पिता से मिलो, समझाओ, बताओ। हमारे पास भी वह सबकुछ है जो मेरी प्राइवेट बहन ने सुविधा के नाम पर बना रखा है।

यह जरूर महसूस कराओ कि  उसके पास मां है जबकि मेरी बहन(प्राइवेट) के पास शोहरत- दिखावे के अलावा कुछ नहीं । उनकी बातों को सुनकर अभिभावक हैरान है।  पूछते हैं कि यह अहसास- अपनापन कोरोना आने के बाद ही क्यों हो रहा है। इससे पहले क्यों नहीं हुआ।

चलो मान लेते हैं मां तुम्हारे पास है, तुम आज्ञाकारी हो, सबसे ज्यादा समझदार, योग्य एवं पढ़ी लिखी हो। एक बात बताओ इतना सबकुछ होने के बाद भी तुम्हे खुद पर भरोसा क्यों नहीं है। तुम क्यों अपने बच्चों को उनकी मौसी (प्राइवेट स्कूल) के पास पढ़ने भेजती हो।

इसी दोगली मानसिकता ने तुम्हे किसी लायक नहीं छोड़ा। इसलिए आज तुम्हारे पास आराम परस्त अच्छा खासा वेतन लेने वाली का तमगा लगने के अलावा कोई उपलब्धि नहीं है। चिंता इसलिए नहीं तुम्हारे सिर पर मां का हाथ है। फिर भी  हमने तुम्हारी एक बात जरूर मानी है।  जब तुम अपनी संतानों  को जिस बस से अपनी बहन के पास भेजती हो बराबर वाली सीट पर हमारे बच्चे होते हैं।

तुम क्या समझती हो समझदार तुम्हीं हो। अब गंगाजल की तरह सबकुछ साफ हो रहा है। जाकर मां से कह देना  पहले वह खुद का आचरण ठीक कर  ले। इतने सालों में वह अपनी सरकारी लाखों बेटियों में एकको भी ऐसी लायक नहीं बना सकी जिस पर वह गर्व कर सके। हमारी चिंता ना करें पहले खुद को सुधारे।

अगर पहले से ही मां के आचरण, व्यवहार, समझ,समर्पण, सोच में ईमानदारी होती तो आज उसकी दोनों बेटियां एक साथ रहती। हमारे पास आने की जरूरत नहीं पड़ती। मौजूदा माहौल में तो ईमानदारी दिखा दो। कम से कम कोरोना से ही सीख लो वह भेदभाव, ऊंच- नीच, अमीरी- गरीबी, तेरा- मेरा, अपना- पराया तो नहीं करता। सबसे समान व्यवहार रखता है। शिक्षा मतलब भी समानता है

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