सरकार एवं विपक्षी दलों के नेताओं को चाहिए कि वह गणतंत्र की घटना के बाद अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की बजाय मिलकर इस विवाद को उसी तरह निपटाए जिस तरह संसद पटल पर सभी सांसद एक आवाज में अपने महंगाई भत्ता एवं अन्य सुविधाओं को पास कराने के लिए एकजुट नजर आते हैं।
रणघोष खास. प्रदीप नारायण
गणतंत्र दिवस पर किसान ट्रैक्टर परेड के नाम पर दिल्ली में जो कुछ हुआ। उसे अपने नजरिए से बार बार दोहराने का कोई फायदा नहीं है। कुछ स्थानों पर हुई हिंसक घटनाएं और लाल किले की प्राचीर पर कुछ उपद्रवी तत्वों की हरकतों से यह भ्रम निकाल दे कि इससे हमारे देश की गरिमा- एकता और अखंडता कमजोर हुई है। इन घटनाओं से पैदा हुई चिंगारी को ज्वालामुखी बनाने से पहले छोटी- बड़ी राजनीति करने वाले नेता अपने गिरेबां में झांक कर यह समझ ले कि हमारा इतिहास इससे भी भयंकर हरकतों के कंलक को लोकतंत्र के गंगाजल से धोकर आन-बान-शान से आगे बढ़ता रहा है। कांग्रेसी किसानों की आड लेकर भाजपा पर हमला करे तो उसे 1983 के सिख विरोधी दंगों का भी हिसाब देना होगा जिसके धब्बे आज तक नहीं हट पाए हैं। भाजपाई यह सोचकर ना इतराए कि गणतंत्र दिवस पर हिंसा में बदले किसान आंदोलन से उसे अब बहुत कुछ बोलने का मौका देगा। इससे पहले उसे धर्म-जाति के नाम पर लाल होती रही सड़कों पर खड़े होकर यह साफ करना होगा देश की राजनीति संविधान की गरिमा से चलती है या हिंसा की आग से झुलसकर निखरती है। इस देश में ऐसा कोई छोटा- बड़ा दल नहीं बचा जिसकी पहचान 26 जनवरी 1950 को लागू हुए संविधान की पालना से होती हो। इसलिए ऐसी घटनाओं पर नेता कुछ भी बोले अपनी आंख- कान और जुबान को अलर्ट कर दीजिए कि वह अपने यहां नो एंट्री का दरवाजा पहले ही बंद करके रख ले ताकि दिलों दिमाग में इनका फैंका हुआ कचरा जगह ना बना ले। अब आइए मीडिया पर। पहले इस कहावत को खत्म कर डालिए एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती हैं। ध्यान रखिए मछली खुद गंदा नहीं होती है। पहले उसे लालच के कांटे में फंसाया जाता है। फिर उसे योजना के तहत दुबारा तालाब में डाल दिया जाता है ताकि सारा इलजाम उसी मछली पर आ जाए और तालाब की बची सारी मछलियां उसकी कीमत चुकाने के लिए बेबस नजर आए। कोई बार बार यह ढिंढोरा पीटे की वह देश का सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाला अखबार, या खबरों को सबसे पहले दिखाने वाला नंबर वन चैनल है तो समझ जाइए ऐसे मीडिया को खुद पर भरोसा नहीं है। इसलिए वह टीआरपी के बाजार में खड़े होकर अपनी बोली लगवाने के लिए इस तरह चिल्ला रहा है। हमें स्वीकाराना होगा 72 साल के हो चुके संविधान पर अलग अलग विचारधाराओं वाली राजनीतिक पार्टियां मौका लगते ही प्रोपर्टी डीलरों की तरह प्लाटिंग करना शुरू कर देती है। जिस तरह छोटे- बड़े शहरों के आस पास पहले अवैध कालोनियों को जन्म दिया जाता है। बाद में यही कालोनियां राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में चुपके से वैध हो जाती है। इसके लिए भी हमारे नेता पाकिस्तान या चीन को जिम्मेदार माने तो समझ जाइए वे हमें लोकतंत्र के किस चौराहे पर खड़ा करके जा रहे हैं। इसके बावजूद हम निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। वह इसलिए हमारे संविधान की पवित्रता किसी हिंसक घटनाओं से नहीं एक सच्चे भारतीय के मिजाज से तय होती है। देश की आजादी के 73 साल बाद भी हमारा अन्नदाता अपनी संतान को किसान नहीं बनाना चाहता तो इसमें गलती उसकी नहीं सिस्टम की है। जिस पर कब्जा करने के लिए हर पांच साल बाद होने वाले चुनाव में हमारे नेता अपनी राजनीति फसल को लहराने के लिए किसान को खाद- बीज बनाकर इस्तेमाल करते हैं। वे ऐसा करते समय भूल जाते हैं कि किसान जब खेत से अनाज पैदा कर सकता है तो वह समय आने पर राजनीति जमीन को बंजर भी बना सकता है क्योंकि वह सौदागर नहीं है। कृषि से जुड़े तीन बिलों में किसानों को कृषि की महक नहीं सौदेबाजी की दुर्गंध महसूस हो रही है। इसलिए वह सड़कों पर है। इसलिए सरकार एवं विपक्षी दलों के नेताओं को चाहिए कि वह गणतंत्र की घटना के बाद अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की बजाय मिलकर इस विवाद को उसी तरह निपटाए जिस तरह संसद पटल पर सभी सांसद एक आवाज में अपने महंगाई भत्ता एवं अन्य सुविधाओं को पास कराने के लिए एकजुट नजर आते हैं।