डंके की चोट पर : अब राजनीति तय करती है आंसूओं को कब बहना और कब सूखना है

रणघोष खास. देशभर से


इस देश में सहृदय प्रधानमंत्रियों के भावुक होकर आंखें छलकाने का इतिहास पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय से ही चला आता है। 1962 के युद्ध में चीन के हाथों मिली शिकस्त के बाद 1963 के गणतंत्र दिवस समारोह में राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में पार्श्वगायिका लता मंगेशकर ने कवि प्रदीप का लिखा मेरे वतन के लोगो! जरा आंख में भर लो पानीवाला भावप्रवण गीत गाया तो उसे सुनकर नेहरू की आंखें डबडबा आई थीं। इससे बहुत पहले 30 जनवरी, 1948 को भी, महात्मा गांधी के निधन के बाद, कहते हैं कि उनके पार्थिव शरीर के पास ही गीतकार राजेंद्र कृष्ण का लिखा और मोहम्मद रफी का गायासुनोसुनो दुनिया वालो, बापू की यह अमर कहानीगीत सुनकर भी वे खुद पर काबू नहीं रख पाए थे और फूटफूटकर रोने लगे थे। बाद में मोहम्मद रफी को अपने घर बुलाकर उन्होंने उनसे दोबारा यह गीत सुना और अगले स्वतंत्रता दिवस पर रजत पदक प्रदान किया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्रीकाल लंबा नहीं रहा. वे इस काल की पहली वर्षगांठ भी नहीं मना पाए थे. लेकिन इस दौरान अपने गृहराज्य उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला से हुए अत्याचार के बाद उसे ढाढ़स बंधाने पहुंचे तो वे भी अपनी आंखें नम कर ही बैठे थे। प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री, कांग्रेस के दिवंगत नेता माखनलाल फोतेदार की आत्मकथा की गवाही मानें तो छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा से मिलने गए, तो डॉ. शर्मा भी बच्चों की तरह रो पड़े और विह्वल होकर उनसे पूछने लगे थे, ‘पीवी (तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहसिम्हा राव) ने यह क्या करा डाला?’दरअसल, वे इस ध्वंस से पांच महीने पहले ही देश के प्रथम नागरिक बने थे और उनसे उक्त ध्वंस सहा नहीं जा रहा था। हां, प्रधानमंत्रियों के इस तरह आंखें छलकाने की जहां यह कहकर प्रशंसा की जाती रही है कि इससे कम से कम इतना तो साबित होता ही है कि राजनीति के पाप पंक में रहकर भी वे सर्वथा निष्ठुर या हृदयहीन नहीं हुए हैं, वहीं आलोचनाएं भी कुछ कम नहीं की गई हैं। 1963 में लता का गीत सुनकर नेहरू की आंखें डबडबाने की खबर आई तो समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने तमककर उन पर निशाना साधते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री का काम रोनाबिसूरना नहीं, देश का नेतृत्व करना और उसका हौसला बढ़ाना होता है। बीते हफ्ते कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की राज्यसभा से विदाई के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रो पड़ने को लेकर निकाले जा रहे हैं, सिर्फ उनके विरोधियों बल्कि समर्थक मीडिया द्वारा भी, वैसे किसी प्रधानमंत्री के आंसुओं को लेकर कभी नहीं निकाले गए.। अगर ये अंदाज़े सच्चे हैं तो निस्संदेह प्रधानमंत्री के आंसुओं की निर्मलता पर बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। इनमें सबसे बड़ा तो यही कि क्या अब सत्तादल के पक्ष में प्रधानमंत्री के आंसुओं का भी राजनीतिक इस्तेमाल होगा? अगर हां, तो इसका अंत कहां होगा और उससे प्रधानमंत्री पद की गरिमा कितनी बढ़ेगी?

2014 में वे संसद के सेंट्रल ह़ॉल में लालकृष्ण आडवाणी पर पीएम मोदी  बोलतेबोलते रो पड़े थे, तो उसके अगले ही साल फेसबुक के दफ्तर में अपनी मां को याद कर. 2016 में नोटबंदी के बाद भी वे रोए ही थे। कहीं डॉ. लोहिया आज होते तो उनसे पूछे बिना रह नहीं पाते कि कैसे प्रधानमंत्री हैं, जो जराजरा सी बात पर इस तरह रो पड़ते हैं? फिर आपकी यह रुलाई उस वक्त क्यों नहीं फूटती, जब गरीब, लाचार कमजोर लोगों पर आपकी सत्ता के निष्ठुर फैसलों की मार पड़ती है? सवाल फिर वही कि देश को चलाने वाले नेता अपने आंसुओं को राजनीति की कलाबाजियों में क्यों बदल देते है? क्यों उनकी राजनीति ही तय करती है कि उन्हें कब बहना है और कब सूख जाना है? क्या कभी हमें इसका जवाब मिल पाएगा?

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